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प्रयोदावानलोरसः
पर्वती
प्रों दावानलो रस: arshodavanalo. | अशोवत्मन् arsho-vartman-सं० क्लीन
rasah-सं० पु. मगर को तेज़ अग्नि में नेत्रवर्मगत रोग विशेष । सपा तपा कर त्रिफला के हाथ में कई बार बुझाएँ । लक्षण-ककड़ी खीरा के बीजों के समान फिर घीकुमार के रस में भावना देते हुए २१ | मन्द पीड़ा यानी चिकनी और कठोर फुन्सी जो पुट हैं। फिर गन्धक और पारे की कजली और } नेम्रधर्म (नेत्र के पलक) में उत्पन्न हो उसे उतनी ही सोहभस्म, त्रिकुटा, त्रिफला, भांगरा, "अशोवर्म" कहते हैं । यह ससिपातज होती है चीसा और मोचरस मिलाकर गित्लोय के काथ
मा०नि०।
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. की भावना देतो यह सिद्ध होता है। इसे चार
अर्थीहररस: arshohar-rasub-सं० पु'. यह मासे जमीकन्द के चूण और हींग के साथ स्वाने
रस अर्श के लिए हितकारक है। योग इस प्रकार से अथवा भिलावें के तेल और शहद के साथ
है-पारद, वैक्रान्त, शुद्ध अभ्रक भस्म, कान्तलौह साने से हर प्रकारके यत्रासीर नष्ट होते हैं। रस०
भस्म, गंधक शुद, सबके तुल्य भाग को ले अनार यो. सा..
स्वरस से मली प्रकार मर्दित कर रख छोड़े। मोयन्त्रम् arshoyantram-सं० ली। मात्रा व गुण-इसमें से १ मासा खाने से
प्रोंयन्त्र (बवासीर का यन्त्र) गौ के स्तनों के | अर्श नष्ट होता है । बस० र०। . . . . साश चार अंगुल लम्बा और पाँच अंगुल गोलाई भर्शहर रसः arshohara-rasah-सं० पु. में होता है। स्त्रियों के लिए इसी यन्त्र की गोलाई गन्धक, चाँदी, और ताम्बा एक एक भाग लेकर कः अंगुल की होती है क्योंकि उनकी गुदा बारीक पीस ले। फिर तीनों के बराबर अभ्रक स्वाभाविक ही बड़ी होती है। व्याधि के देखने के
भस्म और गन्धक से , भाग लोहभस्म और है लिए दोनों ओर दो छिद्र वाला यंत्र होता है तथा शस्त्र और चारादि प्रयोग के निमिन एक बिन्द्र
भाग बच्छनाग और गन्धक से द्विगुण पारद ।
सबको मिला जम्भीर के रस में घोटकर मिट्टी के वाला यंत्र होता है । इस यन्त्रके वीचका भाग तीन अंगुल का और परिधि अंगूठे के समान होती है ।
बर्तन में रखकर त्रिफला के क्वाथ की भावना दे। इस यन्त्र के ऊपर श्राध श्राध अंगुल ऊँची एक फिर क्रम से दशमूल और शतावरी के क्वाथ में कणिका होती है जिससे यन्त्र बहत गहराई में नही पकाएँ। जा सकता है। अशे के पीड़न के निमित्त एक और मात्रा-३ रत्ती गोली रूप में | प्रकारका यन्त्र होता है । रसे शमी कहते हैं । यह गुण--यह प्रशं, गुदा रोग और शूल को नष्ट भी ऐसा ही होता है। किंतु छिद्र रहित होता है । करता है । रस० यां० सा०।
. वा० सू० २५ अ० । अत्रि० जयद० ५३ | अशहरलेप arsthoharalep-सं० क्ला. हाथी 401
की लीद, घी, राल, पारा, हल्दी इन्हें थूहर के प्रशारिमण्डरम् arshorimandiraunt दूध में पीस कर लेप करने से अर्श नष्ट होता है।
च० सं०। पु. पुराने मण्डूर को लेकर गोमूत्र में पकाएँ जिससे वह चूर्ण सा होजाए । फिर इसमें निकुटा
अर्थोहितः arshoriitah-सं. प. महातक त्रिफला और माधी मिश्री मिलाकर ३ दिन तक
वृक्ष, भिलावा । ( Semicarpus anaca. धरा रहने दें, पश्चात् रोगी को दें तो गुदा द्वारा
rdium.) त्रिका माने वाला रुधिर बन्द होता है।
अषणी arshani संलो. (१) गति शीव कीट
विशेष । अथर्व । का०६ । १३ । १२ । (२) पथ्य-दूध, चावल, मसूर एवं स्त्री प्रसंग तीन पीदाजनक रोग । अथव' । सू० ८ । मिषिद्ध है। वृ.नि. र. चि०।
१३ । का ।
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