________________ (38) को दूर करके केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् उद्बोधन देते हैं। धर्म का प्रवर्तन करते हैं। ___ जैन धर्म में सामान्यतया तीर्थंकर अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, वीतराग आदि समान पर्यायें हैं, किन्तु सूक्ष्मतया अथवा व्यवहार एवं निश्चय की अपेक्षा कुछ भिन्नता भी है। वैसे यथार्थ ज्ञान की कोटि में सभी का स्तर एक-सा है, किन्तु तीर्थङ्कर एवं सामान्य केवली में भिन्नता अवश्य है। ज्ञान समान हो जाने पर भी तीर्थंकर धर्म का प्रवर्तन कर सकते हैं, सामान्य केवली नहीं। यदि आगमिक, दृष्टिकोण से देखा जाये तो आगमों में एक भी स्थल ऐसा नहीं जहाँ सामान्यकेवली को अर्हत् कहा गया हो। मात्र तीर्थंकर को ही अर्हत् पद से अलंकृत किया गया है। इस प्रकार निश्चत नय की दृष्टि से तो मात्र तीर्थङ्कर को ही अर्हत् कहा जा सकता है। किन्तु ज्ञान की तुल्यता से, व्यावहारिक अपेक्षा से सामान्य केवली को भी अर्हत् कहा जा सकता है। जैन परम्परा में भी समयानुसार 2 शाखाएँ विभाजित हुई- 1. श्वेताम्बर 2. दिगम्बर। इन दोनों ही सम्प्रदायों में 1. स्त्रीमुक्ति 2. केवली भुक्ति इन दो विषयों के अतिरिक्त कुछ विशेष मतभेद अद्यापि नहीं है। किन्तु अर्हत् के स्वरूप में किञ्चिद् मात्र भी मतभेद, भिन्नता नहीं, जैसा कि बौद्ध सम्प्रदायों में हुआ है। ये दोनों ही सम्प्रदाय आध्यात्मिकता के उच्चतम शिखर पर अर्हत् की ही स्थापना करते हैं। परमेष्ठी के पाँचों ही पदों में अर्हत् का स्थान प्रमुख है। कर्मक्षय की अपेक्षा से सिद्ध अथवा मुक्तात्मा कर्म रहित हो चुके। जबकि अर्हत् के चार कर्म शेष रहते हैं। कर्मशेष होने पर भी तीर्थ-स्थापना एवं धर्म-प्रवर्तन करने से अर्हत् की महत्ता सर्वोपरि मान्य की गई है। - अर्हत्, जिन, सर्वज्ञ, तीर्थंकर, केवली, वीतराग आदि समान पर्यायें होने पर भी आगमिक दृष्टि से अवलोकन करने पर प्राचीनतम प्रमाणित अंग आगम में भी 'अर्हत्' संज्ञा प्राप्त होती है, तीर्थंकर नहीं। आचाराङ्ग व सूत्रकृताङ्ग दोनों ही सर्वाधिक प्राचीन (ई. पू. ५वी शती) मान्य किये हैं। उसमें भी 'अरहंत' पद प्रयुक्त किया गया है। अभिधान चिन्तामणि में भी आचार्य हेमचन्द्र ने अर्हत् को प्रधानता देकर अन्य पर्यायें पश्चात् संलग्न की है। (12 वीं शती) अर्हत् जिनः पारगतस्त्रिकालवित्। क्षीणाष्ट कर्मा परमेष्ठयऽधीश्वरः / / 1. आचाराङ्ग सूत्र 1. 4. 1.