________________ (155) विषयभोगों तथा काय क्लेशों की अतियों के बीच समन्वय स्थापित करता है। प्राचीन बौद्ध तथा संस्कृत बौद्ध साहित्य में निर्वाण के मार्ग के रूप में शील, समाधि और प्रज्ञा का उल्लेख किया जाता है। बाद में इसी मार्ग को अष्टांग मार्ग भी कहा गया है। इस प्रकार बौद्ध परम्परा में मोक्ष विषयक अवधारणा का गहनतम विचार किया है। मुक्तावस्था का तुलनात्मक अध्ययन भारतीय दर्शन के अन्तर्गत सर्व दर्शनों ने मुक्ति को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया ही है। मोक्षावस्था से पूर्व उसी भव में जीवन्मुक्त अवस्था को पूर्व भूमिका के रूप में प्रान्य किया है। यदि जीवन्मुक्तावस्था नहीं है तो विदेहमुक्ति अथवा मोक्ष भी संभव नहीं। तात्पर्य यह है कि जीवन्मुक्तता मोक्ष की अनिवार्य शर्त है। यह जीवन्मुक्ति जिस जीव का अन्त:करण धुल गया हो, वासनाएँ न हो, वीतराग-वीतद्वेष हो, उसको देह की विद्यमानता में ही होती है। यह ज्ञान की चरमावस्था भी है। हर्ष-शोक से परे, निरतिशय आनन्द के अनुभव की. यह अवस्था है। विशुद्ध चित्तवृत्ति प्रवाहित होती है। उसका देहाध्यास मिट जाता है। मात्र शरीर को धारण करने वाली प्रारब्ध कर्म-वासनाएँ ही प्रवृत्त होती है। ऐसा पुरुष ही जीवन्मुक्त, केवली कहलाता है। उनका मोक्ष भी निश्चित रूप से होता ही है। ___ चार्वाक दर्शन जीवनकाल में किसी के आधीन न होना, जीवन्मुक्ति मानता है तथा जीवन की समाप्ति को मोक्ष। ___ बौद्ध-दर्शन में जीवन्मुक्तावस्था को सोपधिशेष निर्वाण कहा है। उस अवस्था में साधक के सब क्लेशावरणों का प्रहाण होता है। इसे विमुक्तकाय की दशा भी कहा है। विदेहमुक्ति को निरूपधिशेष निर्वाण से व्यवहृत किया है। इस दशा में चित्त सन्तति का सर्वथा उच्छेद हो जाता है। न्याय वैशेषिकों के अनुसार भी जीवनकाल में ही मिथ्याज्ञान जन्य वासनाओं का अभाव होना जीवन्मुक्ति है। आत्मा के साथ शरीर प्राण, इन्द्रियों का संयोग जीवन है। और तद्जन्य दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति या दुःखों का ध्वंस मोक्ष सांख्य मत में सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति का उदय होने से जीवन्मुक्ति को मध्य विवेक की अवस्था कहा गया है। अज्ञान का नाश होकर तत्त्वज्ञान होने पर ही