________________ (313) श्रेय जैन साधु को जाता है। राष्ट्र, समाज में व्याप्त हिंसा का निषेध ही वे नहीं करते वरन् उसके विरोध में आत्म समर्पण करने से भी वे नहीं चूकते। इस प्रकार साधु की यह अभयदान की साधना प्राणीरक्षा में अत्यन्त हितावह है। जैन साधुओं की साहित्यसाधना __संस्कृति की सबसे बड़ी निधि उसका साहित्य है, जो सारे विश्व में उसके विचारों का प्रतिनिधित्व करता है और उसके गौरव को अक्षुण्ण बनाये रखता है। जैन विद्वानों की अधिकांश रचनाएँ अध्यात्म पर रचित है, सामाजिक व्यवस्था पर नहीं। इसका कारण यह है कि श्रमण परम्परा का विकास आत्मलक्षी दृष्टिकोण के आधार पर हुआ है। शाश्वत सत्य मोक्ष प्राप्ति की व्याख्या में उन्होंने साहित्य सर्जन किया। वे समाज व्यवस्था को धर्म के साथ जोड़ना नहीं चाहते थे। धर्म को परिवर्तनशील समाज व्यवस्था के साथ संयुक्त करने से उनका ध्रुव रूप विकृत हो जाता। यद्यपि साधुओं ने आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण किया है तथापि प्रायः उसके प्रत्येक अंग पर भी अवश्य रचनाएँ की है। उदाहरण स्वरूप ज्योतिष, आयुर्वेद, राजनीति, समाजशास्त्र आदि महत्त्वपूर्ण अंगों पर भी उनकी समर्थ लेखनी चली है। नीतिवाक्यामृत-आचार्य सोमदेव की रचना में राजनीति के समस्त अंगों का चित्रण प्रस्तुत करता है, जो कि विद्वद्समाज के लिए आदर्श रूप है। इसी प्रकार महापुराण, धर्मशर्माभ्युदय आदि ग्रन्थों में भी राजनीति का सुन्दर विवेचन है। इस प्रकार राजनीतिपरक ग्रन्थों को रचकर उनके द्वारा आत्महित साधने की कड़ी को उसके साथ जोड़ा है। साधुओं का समग्र जीवन ज्ञानाराधना मय होता है। इसमें स्वहित के साथ समाज हित भी समाया है। प्राचीन काल में साधु समाज ने श्रुत रचना करके समाज की अभूतपूर्व सेवा की है। उनकी रचनाएँ हजारों वर्ष उपरान्त प्रकाश पुंज बनी हुई है, जिससे जगत् को अद्यापि प्रकाश मिल रहा है। उन मनीषियों द्वारा प्रतिपादित जड़-चेतन संबंधी तथ्य आज भी वैज्ञानिकों के अन्वेषण के विषय बने हुए हैं। इस प्रकार साहित्य-सर्जन करके साधु वर्ग में जनकल्याण के लिए अनमोल खजाना भरकर भव वन में भटकते प्राणियों का मार्ग प्रशस्त किया है। . शिक्षा प्रसार में साधुओं का महत्त्वपूर्ण योगदान साहित्य सर्जन तक ही उनका कार्य सीमित न रहा, बल्कि शिक्षा प्रसार में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।