Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 362
________________ (359) तत्त्वरुचि रूपी माता और तत्त्वबोध रूपी पिता द्वारा तत्त्वपरिणति रूपी पुत्र को जन्म देकर उसका पालन पोषण करता है और धर्मरूपी अर्थोपार्जन हेतु तैयार करते हैं। उसमें वह परीषह-उपसर्ग रूपी कष्टों को आनन्दपूर्वक सहन करके बहुत धन कमाता है और अनंतकाल के लिए कभी भी जो न खूटे ऐसे मोक्षरूपी अक्षय, अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है, तथा जगत् के सर्व जीवों को सदा के लिए अभयदान प्रदान करता है। उस दान के द्वारा जगत् के जीवों का दारिद्र खत्म करने का कार्य सदैव करता रहता है और अपने समान वह सच्चिदानन्दस्वरूपी बनाता है। इस प्रकार ये पंच परमेष्ठी तत्त्वरूचि के माध्यम से तत्त्वबोध प्राप्त करवा कर तत्त्वपरिणति में अग्रसर करके मोक्ष सोपान कर आरूढ़ करता है। प्राप्त, व्यास और समाप्त : पंच परमेष्ठी पंच परमेष्ठी यह जिनाज्ञा का मूर्तिमंत स्वरूप है। प्रथम दो पद आज्ञाराधना के फलस्वरूप है और अन्तिम तीन परमेष्ठी स्वयं आज्ञाराधनस्वरूप है। इन पाँचों को नमस्कार करने से चित्तशुद्धि होती है और शुद्ध चित्त में आज्ञा का विश्वव्यापित्व प्रतिबिंबित होता है। सचराचर विश्व की स्थिति यह आज्ञाराधन और आज्ञा विराधना का ही प्रतिबिम्ब दिखाता है। यह आज्ञा आप्त पुरुषों के वचन-श्रवण से प्राप्त होती है। फलस्वरूप भेदभाव का नाश और अभेदभाव की उत्पत्ति स्वरूप. समता का प्रगटीकरण होता है। भेदभाव में से हिंसा, क्रोधादि आस्रव एवं अभेदभाव में से अहिंसा, क्षमादि संवर भाव उत्पन्न होते हैं। आस्रव एवं अभेदभाव में से अहिंसा, क्षमादि संवर भाव उत्पन्न होते हैं। आस्रव सर्वथा हेय है और संवर उपादेय है। इस प्रकार आज्ञा का बीज साम्यभाव जीवन में व्याप्त होता है। यह साम्यभाव ही सकल 'अरहंतो' का प्रतिष्ठान, मोक्ष लक्ष्मी का निवासस्थान और स्वर्ग-मृत्यु-पातालरूप त्रिलोक का स्वामित्व दिलाने में सार तत्त्व है। यह विश्ववत्सल है। इस प्रकार अरंहत की आज्ञा, भक्ति, साम्यभाव को विकसित करता है। यह साम्यभाव साधु में जीव मात्र के सहायक रूप में, उपाध्याय में सूत्रप्रदान रूप में, आचार्य में आचार पालनरूप में, अर्थ प्रदानरूप में, सिद्धों में पूर्णता रूप में तथा अर्हतों में इन सब के मूल में प्रगटरूप से व्याप्त दृष्टिगत होता है। इस प्रकार जीवन में व्याप्त होकर सिद्धि पद में समाप्त होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394