________________ (381) ‘णागकुमारेसु उववन्ना.......... आवश्यक चूर्णि-पृ. 280 (5) देवाभद्राचार्य कृत कथारनकोश (र. सं. 1125) में श्री देव राजा के वृत्तांत के अन्तर्गत शांतिनाथ भगवान् के मंदिर की उत्पत्ति में भी पंच नमस्कार मंत्र के कथाघटक का उल्लेख मिलता है-1 "एक समय हमेप्रभ देव केवली भगवान् को अपने आगमी भव के विषय में पृच्छा करता है। तब उसे जानने को मिला कि वह मृत्यु के समय में आर्तध्यान के कारण उसका वानर के रूप में जन्म होगा और उस अवतार में महाकष्ट से उसे सम्यक्त्व का लाभ होगा। तब उस देवने उस लाभ के लिए पर्वत के एक पाषाण में नवकार मंत्र कुरेदा (लिखा)। वह देव मरकर बन्दर बना और भ्रमण करता करता उस शिला के पास आया। जातिस्मरण ज्ञान होने पर नवकार मंत्र का स्मरण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ। मरकर सौधर्म देवलोक में देव बना। अवधिज्ञान से नवकारवाली शिला के पास आया। वहाँ शांतिनाथ भगवान् का मंदिर बनाया।" आख्यानक मणि कोश वृत्ति (सं. 1190) अन्तर्गत गोकथानक, पड्याख्यानक और फणाख्यानक एवं वर्धमानसूरिकृत वासुपूज्य चरित्र (सं. 1299) में रोहिणी (दुर्गन्धा) के कथानक में यह कथा घटक मिलता है। सुदंसणा चरियंअज्ञात कवि कृत 'दंसणा चरियं' में चील को मुनि भगवन्त ने नमस्कार मंत्र सुनाया तथा भवान्तर में सिंहल द्वीप में राजकुमारी के रूप में जन्म लेने का कथानक उपलब्ध होता है। देवेन्द्रसूरि रचित सुदर्शना चरित्र के समान ही इसमें भी वर्णन प्राप्त होता हैजंगल में एक शिकारी ने चील का शिकार करने के लिए उसे बाण से बींध दिया। तड़फती हुई वह चील नीचे गिरी। समीप में एक मुनिराज ध्यानस्थ खड़े थे। गिरने की आवाज से अनायास मुनि श्री की ध्यान-श्रेणी में विक्षेप पड़ा। आँखे खुली और सामने बाण से बिंधी चील पर नजर पड़ी। अन्तिम श्वास लेती उसको नवकार मंत्र सुनाया। उसके फलस्वरूप वह सिंहल द्वीप में राजकुमारी बनी। राजसभा में विदेशी सौदागर के छींक आने पर 'नमो अरिहन्ताण' सुनकर मूर्छा आ गई। होश में आने पर जाति स्मरण से पूर्व भव को देखा। भरूच में उस स्थल पर जिन मंदिर का निर्माण कराया। चील का चित्र बनवा कर उसका नाम 'समडीविहार' रखा। इस प्रकार अनेकानेक चरित्रग्रन्थों में, उपदेशक ग्रन्थों आदि में पंचपरमेष्ठी विषयक अनेक ऐतिहासिक कथा घटक उपलब्ध होते हैं। 1. कथारत्नकोष-देवभद्राचार्यः प्रका. भावनगर, जैन आत्मानंद सभा 1951, पृ. 116-117 2. आख्यानकमणिकोशवृत्ति/आम्रदेवसूरि, संपा. मुनि पुण्य विजयजी वाराणसीः प्राकृत ग्रन्थ परिषद् 1962 3, वासुपूज्य चरित्र/वर्धमानसूरि, भावनगरः जैन आत्मानन्द सभा।