Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 368
________________ (365) हैं, तो साधु साधना मार्ग पर आरूढ़ हो कर कर्म क्षय करने में ज्ञान-ध्यान, तप स्वाध्याय करते हैं। लोकहित से पूर्ण दृष्टि जैन साधना में संघ (समाज) का स्थान भी कम नहीं। आचार्य, उपाध्याय, साधु को संघीय नियमों के अन्तर्गत रहना ही होता है। संघ का स्थान सर्वोपरि माना गया है। संघहित वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है। संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। आचार्य कालक इसके उदाहरण है। स्थानांग सूत्र में उल्लिखित दस धर्मों (कर्तव्यों) में संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, और कुल धर्म का उल्लेख यही द्योतित करता है कि जैन दृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् इसमें लोकहित या लोककल्याण की अनवरत धारा प्रवाहित हुई है। लोकहित का स्थान अवश्य पूर्णरूपेण है, किन्तु इसके साथ भी एक शर्त यह है कि इसमें परमार्थ हेतु स्वार्थ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु आत्मार्थ का नहीं। आत्महित वस्तुतः स्वार्थ नहीं है, अपितु वह निष्काम होता है। वहाँ इच्छा, कामना, तृष्णा समाप्त हो जाती है। स्वार्थ और आत्महित में अन्तर है, वह यह है कि स्वार्थीवृत्ति में राग-द्वेष पूर्ण दृष्टि होती है। जबकि आत्महित राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षीणता पर अवलम्बित है। आत्मकल्याण अनासक्त की भूमि पर प्रस्फुटित होता है। साधक आत्मा का लक्ष्य भी अनासक्त जीवन, प्राथमिक कक्षा पर होता है। शनैःशनै अनासक्त भाव से कर्मक्षय करता हुआ आत्मीय गुणों को आत्मसात करता जाता है। ये पंच पद भी आत्मिक गुणों के प्राकट्य की स्थिति है। प्राथमिक स्तर पर साधु, पाश्चात् उपाध्याय एवं आचार्य पद को वहन करता है। साधन, साधक, साध्य स्वरूप ये पंच परमेष्ठी परमात्म स्वरूप होने से स्मरण, कीर्तन, ध्यान करने योग्य होने से साधक स्वरूप हैं। इनके अन्तर्गत आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये तीन पद साधक परमात्मा है तो अरिहंत एवं सिद्ध दोनों पद परमात्मा स्वरूप होने से साध्य स्वरूप भी हैं। अतः सतत स्मरणीय, आचरणीय हैं। 1. निशीथचूर्णि गा. 2830 2. स्थानांगसूत्र 10.760

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