________________ (364) है। इस जगत् में जिन-जिन लोगों ने अपने को समर्पित किया है। शरण में गये हैं। उस महाधारा में उनकी शक्ति भी सम्मिलित हो जाती है। चारों तरफ आकाश में तरंगे संग्रहित हो जाती है, जो कि दृष्टिगत नहीं होती। चारों ओर एक दिव्य धारा का लोक निर्मित हो जाता है। और इस लोक के साथ व्यक्तित्व दूसरे ही प्रकार का हो जाता है। इस महामंत्र में व्यक्ति के आसपास के आभामण्डल को बदलने का कीमिया है। यदि कोई व्यक्ति दिन-रात इसका स्मरण करता रहे, तो वह व्यक्ति न रहकर, अन्य ही व्यक्ति हो जायेगा। राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने हेतु ये अहिंसा के साथ तप और संयम से जीवन यापन करते हैं। परिणामस्वरूप इनके आचार और विचारों में शुद्धिकरण होता रहता है। आचार-विशुद्धि के लिए आत्मौपम्य की भावना से ओत-प्रोत अन्तःकरण से वे पार्थिव, जलीय, आग्नेय, वायवीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों की तथा बेइन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक त्रसजीवों की रक्षा करते हैं / विचारों में साम्यदृष्टि होने से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की वृत्ति पक्षपात, राग, द्वेष, संकीर्णता से परे रखती है। इस प्रकार ये पंच परमेष्ठी पद जैन संस्कृति की अतरंग भावशुद्धि-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के परिचायक है। ___ रत्नत्रय रूप यह संस्कृति इन महात्माओं के आदर्शमय जीवन से सुशोभित है। परिणामस्वरूप इनके आचरण के अनुकरण व सदुपदेश से व्यक्ति अपनी आत्मा को सुसंस्कृत बनाती है। इससे समष्टिगत सुसंस्कारता का वपन होता है। अतः जैन संस्कृति का वास्तविक आदर्श इन महान् आत्माओं द्वारा ही प्राप्त होता है। जैन धर्म में विश्वकल्याण, वर्गकल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई है। जिसमें विश्वकल्याण के लिये धर्म संघ का प्रवर्तन करने के कारण तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान मिला। सम्पूर्ण कर्म क्षय करके सिद्धावस्था को प्राप्त, परम शुद्धस्वरूप सिद्ध को दूसरा स्थान मिला। यद्यपि ये दोनों पूर्व भूमिका में साधक ही थे, परन्तु परमात्म पद का वरण कर लेने से ये साध्य स्वरूप हुए। संघ का नेतृत्त्व करने से, नियामक स्वरूप हुए आचार्य। संघीय व्यवस्था के कुशल संचालक आचार्य हैं। उपाध्याय मुनिवरों पर अनुशासन शिक्षण द्वारा करते