________________ (362) रहकर सत्यमार्ग का अन्वेषण करते हैं। अतः उनका परिज्ञान आदर्श जीवन की प्राप्ति कराता है। जैन संस्कृति का मुख्य उद्देश्य निर्मल आत्मतत्त्व को प्राप्त कर शाश्वत सुखनिर्वाण प्राप्त करना है। इन शुद्धात्माओं का आदर्श सामने रहने से तथा इनका स्मरण, चिन्तन, मनन करने तथा इनकी शरणग्रहण करने से, इनके प्रति समर्पित होने से शुद्धत्व की प्राप्ति होती है। स्पष्ट है कि पंचपरमेष्ठी का स्वरूप शुद्धात्मामय है अथवा ये शुद्धात्मा की उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील आत्माएँ हैं। इनकी समस्त क्रियाएँ आत्मसापेक्ष होती है। आत्मानन्द में निमग्न रहना यही इनका प्रयोजन है। वस्तुतः विश्व में प्राणिमात्र का अभीष्ट सुख और आनन्द है और सभी का कार्यक्षेत्र उसी की प्राप्ति को लक्ष्य में रखकर ही निर्धारित होता है। जिसका दृष्टिकोण जैसा होता है, तदनुरूप उसका आचार, विचार, व्यवहार होता है। वैश्विक कल्याण की इच्छुक ये अहिंसक पंच परमेष्ठी आत्माएँ प्राणियों में ऐसी दृष्टि का संचरण करते हैं कि सच्चा सुख और आनन्द किसमें हैं? परवस्तुओं से प्राप्त सुख और आनन्द क्षणिक व सुखाभास है, सच्चा सुख नहीं। ये विशुद्धआत्माएँ ज्ञान कराती हैं कि जिन पर-पदार्थों में आत्मबुद्धि होने से अशान्ति का अनुभव करना पड़ रहा है, उन पर से मोहबुद्धि दूर होने पर, आत्मिक प्रवृत्ति होने के कारण उसका सदाचरण होने लगता है। स्वार्थ परमार्थ में परिवर्तित हो जाता है। तत्त्वज्ञान की ओर उसका अज्ञान नाश होने से, फलतः आत्मविकास का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और व्यक्ति आत्मिक सुख और चैन की वंशी बजाने लगता है। विश्व कल्याण का प्रवर्तन वही कर सकता है जो आत्मरसिक हो। जिसमें स्वयं में दोष, गलती, बुराई एवं दुर्गुण होंगे, वह अन्य के दोषों का परिमार्जन कभी नहीं कर सकता है। सुधारक वही होगा, जिसने स्वयं को पूर्णरूपेण सुधार लिया होगा। जिसका स्वयं का आचरण ठीक नहीं, उनका आदर्श समाज के लिए भला कैसे कल्याणप्रद हो सकता है? व्यक्ति, राष्ट्र, देश, समाज, परिवार और स्वयं की उन्नति स्वार्थ, मोह और अहंकार के रहते हुए कभी नहीं हो सकती है। जो आत्मा राग-द्वेष की ग्रन्थियों से परे है अथवा इन ग्रन्थियों को दूर करने में अभ्यस्त हैं, उनका आदर्श विश्व के समस्त प्राणियों के लिए उपादेय हैं। पंच परमेष्ठी पदों के आदर्श को अपनाने से सभी अपना हित साधन कर सकते हैं।