________________ (361) किसी सम्प्रदाय विशेष का आदर्श नहीं है। इसमें समाविष्ट आत्माएँ अहिंसा की विशुद्ध मूर्ति है। अहिंसा धर्म का पालन प्राणीमात्र द्वारा किया जाने पर इस आदर्श से सबको सुखी बनाया जा सकता है। कहा गया है कि-"अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः "अर्थात् अहिंसा की प्रतिष्ठा होने जाने पर व्यक्ति के समक्ष क्रूर और दुष्ट जीव भी वैर-भाव का त्याग कर देते हैं। स्पष्ट है अहिंसाधर्म की पूर्णरूप से प्रतिष्ठा होने पर उसके स्मरण, आचरण से सभी का कल्याण होता है। अहिंसक की आत्मा में इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि फल-स्वरूप निकटवर्ती वातावरण में पूर्ण शान्ति व्याप्त हो जाती है। उसके सन्निधान में दुष्काल, महामारी, आकस्मिक विपतियाँ एवं अन्य किसी भी प्रकार का दुःख व्याप्त नहीं हो पाता, फलतः सर्वत्र सुखःशान्ति तरंगित हो उठती है।" __ पूर्ण अहिंसक व्यक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव तो होता ही है, किन्तु उनके नामगुणों के स्मरण में भी वही प्रभाव परिलक्षित होता है। पंचपरमेष्ठी पदों में प्रतिपादित विभूतियाँ विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत हैं। परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त ये आत्माएँ सांसारिक प्राणियों के कल्याण के लिए सत्यमार्ग का प्ररूपण करती हैं। जिसका स्वयं आचरण करके विशुद्ध होते हैं, उसी का प्रवर्तन करते हैं, जिसका अनुसरण करके विश्व का प्रत्येक प्राणी अपना अभीष्ट सिद्ध कर सकता है। जैन संस्कृति के द्योतक ये पंच पद जैन संस्कृति के उपास्य देव एवं गुरु हैं। जो कि जीवन के सत्यों का सहस्योद्घाटन करते हैं। अनादि काल से जीव से व्यापक सत्यों का संबंध चला आ रहा है। संस्कृति सामाजिक और वैयक्तिक जीवन की आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों का समन्वय है। संस्कृति का व्यक्त रूप सभ्यता है, जिसमें आचारविचार, विश्वास, परम्पराएँ, शिल्प-कौशल आदि सम्मिलित हैं। जैन संस्कृति में ये सभी तत्त्व अन्तर्भूत हैं। वस्तुतः जैन संस्कृति आत्मशोधन के उन्हीं तत्त्वों पर बल देती है, जिनसे रत्नत्रय गुणों का विकास होता है। उसी के अनुकूल बाह्य जीवन का निर्माण निर्भर होता है। अनात्मिक भावों का त्याग एवं आत्मिक भावों का ग्रहण करना होता है। यही कारण है कि जैन संस्कृति में अहिंसा, संयम, तप, परिग्रह त्याग आदि को विशेष महत्त्व दिया गया है। जैन संस्कृति के अनेक तत्त्व हैं, किन्तु पंच परमेष्ठी ऐसे पद हैं, जिनके स्वरूप का परिज्ञान हो जाने पर इस संस्कृति को सहजतां से जाना जा सकता है। ये परम विशुद्ध आत्माएँ जैन संस्कृति की साक्षात् प्रतिमाएँ हैं। क्योंकि ये निर्ग्रन्थ