________________ (316) 1. प्रणव : ऊँकार में पंच परमेष्ठी _ विश्व साहित्य में जिनती श्रद्धा और प्रतिष्ठा ऊँको प्राप्त हुई है, संभवतः उसके समकक्ष अन्य किसी पद को नहीं। इसका कारण क्या? इस एकाक्षरी पद में जो गढ और विराट् तत्त्व समाया है, वह अन्य पद में नहीं। यह आध्यात्मिक विद्या का स्रोत है और योगविद्या का केन्द्र है। यही कारण है कि भारत की ही नहीं, विश्व की प्रायः सर्व धर्म परम्पराओं में समवेत स्वर से इसका ध्यान व गुणगान किया गया है। यह वेद का पहला और पवित्र उच्चार है, परब्रह्म, परमात्मा, पुरुषोत्तम, क्षराक्षर से परे है। ऊँकार, प्रणव, सर्वव्यापी, अनन्त, तार शुक्ल, वैद्युत् हंस, तुर्य, परब्रह्म इसकी पर्यायें-नाम हैं। प्रत्येक वेद मंत्र के पूर्व एवं पश्चात् इसका उच्चार करने की रूढ़ि है। वेद, उपनिषद्, गीता आदि वैदिक परम्परा में इसकी महिमा का अत्यधिक गुणगान किया गया है। वस्तुतः यह शब्द मुख्यतः सामवेद का है, जो कि साम का गान करते समय बोला जाता है। सर्व वेदों का सार उपनिषद् है, उपनिषदों का सार गायत्री है, गायत्री का सार व्याहृति है और व्याहृति का सार ऊँकार है। यह ही ब्रह्म है। आदिकाल में तप से सिद्ध बने ब्रह्मा के मुख से यह प्रकट हुआ है, ऐसा स्वीकारा जाता है। वैदिक परम्परा के समान श्रमण परम्परा में भी यह एकमत से स्वीकारा गया है। इसके अतिरिक्त ईसाई, सिख, मुस्लिम, पारसी आदि मतों के साहित्य में इसे इतना ही आदर दिया गया है। मुस्लिम मत में अलिफ, लाभ और मीम अक्षरों के संयोग से अल्लाह का ऐसा गुह्य नाम होता है कि जिसका वास्तविक और पूर्ण अर्थ मात्र फिरश्ते ही जान सकते हैं। इस अलिफ, लाभ और मीम के मध्य का 'लाभ' अरबी भाषा में अनुच्चरित और इससे अल्लाह का गेबी नाम ओम् शब्द को धारण करता है। इसके अतिरिक्त भी इस्लामी शास्त्र में इसकी अद्भुत महिमा का वर्णन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में कथन है किओमित्येकाक्षरं ब्रह्म, व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजद्देहं, स याति परमां गतिम् / / 1. कुराने शरीफ, सुरते बकर :- उद्धृत भगवद्गोमण्डल पृ. 1817 2. गीता 8.5