________________ (356) यह विनय का भी बीज है, क्योंकि नमो पद के द्वारा मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान पर्यन्त ज्ञान के धारक महर्षियों को प्रणाम होता है। इसके अतिरिक्त वह शान्ति, तुष्टि, पुष्टि और शुद्धि का बीज है, क्योंकि, जिनके कषाय शान्त हुए है, जिनमें विषय की वासना नहीं रही, जिनके रागादि दोष क्षीण हो गये हैं और जिन्होंने अहिंसा, संयम और तप के द्वारा-भाव कर्मों को निर्मूल कर दिया है उनका बहुमान होता है। उनके प्रति आन्तरिक प्रीति उत्पन्न होती है और उनके साथ भाव संबंध जुड़ता है। ___ इस प्रकार मुक्ति का बीज होने से यह शान्तिकारक है, विनय का बीज होने से तुष्टिकारक है, तप-संयमादि और मूलगुण एवं उत्तरगुणों के बहुमानरूप होने से पुष्टि और शुद्धिकारक है। ... ___ यह संसार सागर से तिरने को सेतु है, क्योंकि संसार सागर में डूबते हुए जीवों को इससे मोक्षसागर में प्रवाहित होने का मार्ग मिलता है। जो इस मार्ग पर चलता है, उसे संकल्प-विकल्प के जाल में से छूटकर निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि में नेमग्न रहने का बल मिलता है। क्योंकि परम पद में स्थित परमेष्ठी भगवन्तों को जो नमस्कार किया जाता है, ये परमेष्ठी भगवन्त कल्याण के सागर तथा सुख के सागर में निमग्न होते हैं एवं अन्य जीवों को भी निज समान बनाने के लिए संकल्प संयुक्त होते हैं। इस प्रकार परमेष्ठी पद एवं उनको किया गया नमस्कार मोक्ष एवं विनय का ज होता है। न-क्रिया उभय स्वरूप परमेष्ठी पद ज्ञान एवं क्रिया उभय स्वरूप है। पंच पदों का ज्ञान होना, उसकी नकारी होना ही पंच पदों का ज्ञानस्वरूप है तथा तद्रूप आचरण करना याहै। इसके अतिरिक्त क्रमशः इन पदों की आराधना-साधना भी क्रिया है। आराधना एवं साधना से पूर्व इन पदों की जानकारी होना भी अत्यावश्यक / तभी इसकी साधना क्रियान्वित हो सकती है। ज्ञान शून्य क्रिया निरर्थक है। त: यहाँ ज्ञान एवं क्रिया उभयस्वरूप हैं। जैन मात्र को नवकार मंत्र का ज्ञान आवश्यक है। अन्य सूत्रों का ज्ञान हो या न किन्तु पंच परमेष्ठी का ज्ञान तो अति आवश्यक है। अन्य सूत्र का तो अन्य से कर भी काम चला सकते हैं, किन्तु परमेष्ठी पद को नमस्कार स्वरूप नवकार