Book Title: Panch Parmeshthi Mimansa
Author(s): Surekhashreeji
Publisher: Vichakshan Smruti Prakashan

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Page 342
________________ . (339) पंच परमेष्ठी की मंत्र रूप में प्रतिष्ठा-नमस्कार मंत्र जैन परम्परा में इन पंच पदों को नमस्कार स्वरूप मंत्र रूप में इसे प्रतिष्ठित किया है। जिसे नमस्कार महामंत्र अभिधान से सन्मानित किया है। आध्यात्मिक विकास हेतु साधना के विविध आयामों में मंत्र का स्थान सर्वोपरि है। सभी मजहबों में मंत्र रूप से किसी न किसी मंत्र की प्रतिष्ठा अवश्य हुई है। चाहे हिन्दु हो या जैन आत्मा की चैतसिक अवस्था प्राप्त करने में मंत्र को प्रथम सोपान कहा गया है। वास्तव में मंत्र वह बिन्दु है, जहाँ से आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ होता है और अंत में मंत्र स्वरूप साधक स्वयं मूर्तिमन्त हो जाता है। अर्थात् आत्म-प्रवास का प्रारम्भ या अन्त मंत्रमय होता है। हिन्दु परम्परा में जो स्थान 'गायत्री मंत्र' का है, बौद्ध परम्परा में 'त्रिशरण मंत्र' का है, जैन परम्परा में वही स्थान 'नमस्कार महामंत्र' का है। वेद-वाक्य बारम्बार मनन करने योग्य होने से, ऋषि मुनियों के स्मरण करने से, विराट् विश्व के स्वरूप का उनको आभास हुआ। परम तत्त्व का प्रकाश मिला, अतः मंत्र कहलाये। बौद्धों की त्रिशरण पद रचना भी इस दृष्टि से मंत्र रूप में प्रतिष्ठित हुई। इसी प्रकार जैन धर्म में भी नमस्कार मंत्र को भी ख्याति प्राप्ति हुई है। __'नमस्कार महामंत्र' जो कि जैन धर्म का मंत्र शिरोमणि है, और वह नवकार मंत्र, नोकारमंत्र, पंच परमेष्ठी मंत्र, णमोकार मंत्र आदि अनेक अभिधानों से आख्यात है। वह प्राचीन परम्परा में था या नहीं? यदि था तो किस रूप में था? उसका स्वरूप क्या था? क्योंकि मंत्रों में जितना प्रचलन जैन परम्परा में इस मंत्र का है, उतना अन्य किसी का नहीं। यहाँ तक कि अन्य मंत्रों का आद्य भी इसी से होता है तथा प्रादुर्भाव भी प्रायः इन्हीं मंत्राक्षरों से हुआ है। अतः यह तो सर्वमान्य है कि इन मंत्राक्षरों का स्थान सर्वोपरि है। __जहाँ तक प्राचीनता का सवाल है, वहाँ परम्परागत प्रचलन तो यही है कि यह अनादि निधन एवं शाश्वत है। किन्तु इस परम्परागत मान्यता को विद्वद्गण द्वारा प्रमाणभूत स्वीकार नहीं किया गया। आगमिक दृष्टिकोण से जैनागमों में एकादश अंगों को प्राचीनतम मान्य किया गया है। उसमें 'पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति' (भगवती) सूत्र में (वि.पू. 3-4 श.) इन पंच पदों का उल्लेख अवश्य किया गया है, किन्तु भगवती जी में इसे परमेष्ठी अभिधान से अभिहित नहीं किया गया। महानिशीथ सूत्र (वि.श.८-९) में सर्वप्रथम इसे 'पञ्चमङ्गलमहाश्रुतस्कंध' यह लाक्षणिक संज्ञा प्राप्त 1. भगवती सूत्र-शतक 1. उद्देशक 1. 2. महानिशीथ सूत्र-अध्यय. 3 सू. १३-संपा. विजयजिनेन्द्र सूरि

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