________________ (344) शक्ति देवता को तपस् के द्वारा प्रकट कर देना है। इससे विमुक्त हुई शक्ति को आध्यात्मिक या भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति में लगाया जा सकता है। यह है उस मंत्र का स्वरूप जो गुरु से शिष्य की शक्ति और ज्ञान के प्रेषण का वाहक है। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि मानव वाणी के रूप में तथा मानवीय स्तर पर बिना कोई विशेष प्रभाव पैदा किये किसी भी अन्य शब्द, साधारण शब्द मात्र की तरह यह बना रह सकता है, या उसी की तरह प्रमाणित हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अपने आत्मा का काम करने वाले सत्य की आध्यात्मिक शक्ति से अनुप्राणित होता है। मंत्र भी अनिवार्य रूप से अपने प्रथम दृष्टा ऋषि-मुनि की शक्ति से आविष्ट रहते हैं, जिन्होंने इसे अपनी आत्मा में रखा और अपनी आत्मा की पूर्ण शक्ति के साथ इसे स्वरूप प्रदान किया। और फिर अपनी आत्मशक्ति से पूरित करके आगे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाया। __ उपर्युक्त मंत्र-स्वरूप की व्याख्या की अपेक्षा से नमस्कार-मंत्र का शब्द संयोजन विशिष्ट दिव्य पुरुषों से ही संलग्न है। जिस प्रकार औषधियों को भिन्नभिन्न अनुपान के साथ लेने पर, भिन्न-भिन्न प्रकार से मिश्रण करने पर विविध सामर्थ्य उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार मंत्राक्षर भी विविध मुद्रा, न्यास, मण्डल तथा (वर्ण) आदि के प्रयोग से विविध प्रकार की संयोजना करने से अनेक प्रकार के अद्भुत चमत्कारी कार्य कर सकते है। अर्हत् आदि पाँचों पदों का शब्द संयोग एक दिव्य शक्ति का प्रगटीकरण चैतसिक भूमिका में करते हैं। ये अक्षर-विन्यास पीढ़ी परम्परागत रूप से तो प्राप्त हुआ ही है, तथापि इसका आधान उपधान तप के माध्यम से कराया जाता है। इसके अतिरिक्त जैन आचार-क्रिया प्रद्धति में यथा आचार्य प्रद प्रदान, प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि विधियों में अनिवार्य रूप से मंत्राक्षरों की गुप्तता रखी जाती है। ___ इस मंत्र में विशिष्ट वर्ण संयोजना के साथ ही साथ पंच पदों के विशिष्ट रंग भी निर्धारित है, क्रमशः श्वेत, रक्त, पीत, नील एवं कृष्ण रंगों से आविष्ट ये पंच पद हैं। इन पदों के रंग के अनुरूप भी ध्यान करने की पद्धति प्रचलित है। मंत्र शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ चमत्कारिक शक्तियों में मंत्र एवं विद्या इन दो शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैन प्रवचन (सिद्धान्त) में विद्या के अन्तर्गत मंत्र का संभवतः समावेश किया गया है। जैसा कि पूर्वो में विद्या प्रवाद' के अन्तर्गत मंत्रों का उल्लेख किया है। 1. पुंडलीक, पं. माधव : तांत्रिक साधना पृ. 24