________________ (329) अनिर्वचनीय एवं अपूर्व आनंद' जब तैजस् लेश्या के स्पंदन स्फुरायमान होते है, जागृत होते हैं, तब व्यक्ति को अनिर्वचनीय आनन्दानुभूति होती है। वह उस आनंद का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। साक्षात्कार करता है। क्योंकि सत् और असत् व सत्य व असत्य उसे प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हैं। अन्तर्मुखता के परिणाम स्वरूप अन्तर्दृष्टि खिल उठती है। उसकी भ्रांतियाँ टूट जाती है, धारणाएं बदल जाती है। __ पदार्थों में सुख नहीं, इस वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। वस्तुतः हमारे भीतर एक विद्युत् धारा है, वह सुख का निमित्त बनती है। वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि विद्युत के प्रकंपनों के बिना कोई सुख का संवदेन नहीं हो सकता। जो सुख, इन्द्रिय-विषयों के उपभोग से उपलब्ध किया जाता है, वही सुख इिन्द्रय-विषयों के बिना भी, कल्पना से भी किया जा सकता है। और वही सुख केवल विद्युत् के प्रकंपन पैदा करके भी किया जा सकता है। जैन परंपरा यह मान्य करती है कि 'देवनिकाय में वैमानिक देवों में ईशान कल्प तक के देव कायप्रवीचार होते हैं, अर्थात् शरीर से विषयसुख भोगते हैं। शेष देव दो-दो कल्पों में क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और संकल्प द्वारा विषय सुख भोगते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों से तो अब यह सिद्ध हुआ। किन्तु जैन सैद्धान्तिक ग्रंथों में दिव्य सुखों के लिए कल्पना, संकल्प जन्य सुखों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह तथ्य प्रमाणित हो गया कि सुख का संवेदन विद्युत-प्रकंपन-सापेक्ष है। तैजस लेश्या के जागृत होने पर विद्यत-प्रकंपन तीव्रतम हो जाते हैं तब अत्यधिक सुख का अनुभव होता है, तो व्यक्ति उसे छोड़ना नहीं चाहता। उसके परिणाम अत्यन्त सुखद होते हैं। प्रारम्भिक अवस्था आंशिक है। पूर्णता की ओर चरण बढ़ते-बढ़ते अव्याबाध सुख का स्वामी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है। सिद्ध पद का लाल वर्ण इस सापेक्षता से पूर्णतः संगत प्रतीत होता है। सिद्ध परमेष्ठी अनन्त अव्याबाध सुख के स्वामी होते हैं। मानसिक दुर्बलता का अंतर लाल वर्ण, तेजोलेश्या के स्पन्दन जब जागृत होते हैं, तब मन की दुर्बलता समाप्त हो जाती है। मन की कठिनाईयाँ, जिससे व्यक्ति आक्रान्त होता है, सब 1. वही पृ. 65-66 2. तत्त्वार्थ सूत्र 4.8.9 3. प्रेक्षा ध्यान पृ.६७