________________ (320) चैत्यवंदनमहाभाष्य आदि ग्रन्थों में जहाँ इन पंच पदों पर समुचित प्रकाश डाला है, तथापि वहाँ रंगों की परिकल्पना से ये शास्त्र भी सर्वथा मौन है। तब प्रश्न उठता है कि पंच पदों के साथ रंगों का समावेश कब हुआ? किन परिस्थितियों में हुआ? जैन परम्परा में जिस प्रकार पंच परमेष्ठी पद, में नवपद में रंगों का उद्भव हुआ, अन्य परम्परा में अर्थात् बौद्ध एवं ब्राह्मण परम्परा में इसको समाहित किया गया है अथवा नहीं? जैन परम्परा में इन पंच-पदों को जितना महत्त्व दिया गया है, संभवतः अन्य किसी भी परम्परा में नहीं। ब्राह्मण परम्परा में ब्रह्म अथवा प्रजापित ब्रह्मा, विष्णु, अग्नि को आराध्य मानकर आराधना की गई तो बौद्ध परम्परा में अर्हत् एवं बोधिसत्त्व अथवा बुद्ध को साध्य मान कर साधना की गई। किन्तु पंच पदों को समान स्तर पर आराध्य मान कर जैन परम्परा में मंत्र रूप से निबद्ध किया गया। साथ ही वर्ण (रंगों) के साथ आराधना करने का सामञ्जस्य स्थापित किया गया। मात्र अवतार, बुद्ध अथवा बोधिसत्त्व ब्राह्मण परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में उपास्य अथवा परम पद के रूप में स्थापित हैं। मुक्त आत्मा, साधक आत्माओं की उपासना को तो उसमें कोई स्थान नहीं, तो वर्ण के अस्तित्त्व का तो प्रश्न ही नहीं उठता। तात्पर्य यह है कि जैन परम्परा में उपास्य अर्हत् एवं सिद्ध है तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु उपासक है। उपास्य के साथ उपासकों को भी साधना का माध्यम बनाया गया है और उनके ध्यान के लिए निश्चित वर्णों (रंगों) का भी विन्यास किया गया है। जबकि अन्य परम्परा में इस प्रकार के तथ्य दृष्टिगोचर नहीं होते। इन पंच पदों के साथ पंच वर्णों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें महान् प्रभावक भक्तामर स्तोत्र के कर्ता श्री मानतुंगसूरि विरचित (वि. सं. 8 वीं शती) 'नवकार सार थवण'' में उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में इन पाँचों पदों के साथ वर्णों का समायोजन अद्भुत व विस्तृत रूप से किया है। प्रश्न उठता है कि जब मानतुंगसूरि ने इस 'नवकार सार थवण' में विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है तो इससे पूर्व भी स्थूल नहीं तो सूक्ष्म रूप से इसके अंकुर विद्यमान होने चाहिए। अवश्य ही किसी मंत्रविद् आचार्य भगवन्त के द्वारा इसका बीज वपन किया जाना चाहिए। किन्तु अब तक कोई उल्लेख हमारे दृष्टिपथ में नहीं आया। आठवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता। हाँ। इससे पश्चात्वर्ती ग्रन्थों में अवश्य वर्णन मिलता है। 1. नवकार सार थवण उद्धृत-नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत) पृ. 261-267