________________ (319) वैदिक परम्परा ओम् की निष्पत्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप स्वीकार करती हैं, ये देव ही सृष्टि के पालक और प्रलय कर्ता है। 'आ' शब्द ब्रह्मा का, 'अ' विष्णु का और 'उ'' महादेव का वाचक है। आ अ उ मिलकर ओ रूप बनता है। उसकी नान्यतर जाति का सूचक 'म्' प्रत्यय लगाने से ओम् पद निष्पन्न होता है। अन्यत्र 'अ' ब्रह्मा, 'उ' विष्णु और 'म्' महेश्वर से निष्पन्न मानते हैं। किसी स्थल पर वासुदेव (विष्णु) वाचक 'अ', महेश्वर वाचक 'उ' और प्रजापति (ब्रह्मा) वाचक 'म' के संयोग से ॐ की निष्पत्ति स्वीकार की गई है। वस्तुतः ये निष्पत्तियाँ समान अर्थ ही प्रकट करती है। वैदिक सम्प्रदाय के तीनों ही मूर्धन्य देवों का समावेश इसमें किया गया है। तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों ही परम्पराओं में अपने-अपने परमपद में स्थित देवों से ओंकार का उद्गम मान्य करते हैं। जैन परम्परा पंच परमेष्ठि के आद्य अक्षर से निष्पन्न मान्य करती है तो वैदिक परम्परा भी त्रिदेव से इसकी निष्पत्ति मानती हैं। इस प्रकार ओम् के जाप, ध्यान, आराधना से सर्व भारतीय परम्परागत देवों की आराधना-साधना हो जाती है। अर्थात् सब देवों को नमस्कार पहुँच जाता है। 2. पंच परमेष्ठी : वर्णविज्ञान नमस्कार महामंत्र के साथ रंगों का गहरा और व्यापक संबंध है। इससे लाभान्वित होने के लिए, उसके गूढ़तम रहस्यों का उद्घाटन करना आवश्यक है। मंत्रविद् आचार्यों ने नमस्कार महामंत्र के साथ रंगों का समायोजन किया है। मंत्र के गूढ़तम रहस्यों को जानने वाले आचार्यों ने उन रहस्यों के आधार पर, एक-एक के लिए एक-एक रंग की समायोजना की। ऐतिहासिकता __पंच परमेष्ठी पदों के साथ रंगों की कल्पना किस समय विकसित हुई है? सर्व प्रथम हम इस पर विचारणा करेंगे। जैनागमों में इन परमेष्ठी पदों का उल्लेख भगवती सूत्र, महानिशीथ सूत्र में उपलब्ध होताहै। तत्पश्चात् टीका, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि व आगमेतर साहित्य में उसका विश्लेषण किया गया। यद्यपि भगवती सूत्र वृत्ति, आवश्यक नियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, 1. विश्वलोचन कोश