________________ (249) संकल्प है कि मैं आचरित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति उस उपासना को संपन्न करता हूँ। इसका मैं विसर्जन करता हूँ। इसी प्रकार पारसी धर्म में भी पापों को प्रकट करने का विधान है। ईसाई धर्म में भी पापों का प्रगटन आवश्यक माना गया है। इस प्रकार प्रतिक्रमण आलोचना का स्वरूप प्रायः सर्व धर्मों में स्वीकार किया गया है। 5. कायोत्सर्ग (व्रण चिकित्सा) जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें दो शब्द हैकाय और उत्सर्ग। इनका अर्थ है-शरीर का त्याग करना। शरीर त्याग से यहाँ तात्पर्य है-दैहिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग अर्थात् शरीर से ममत्व को छोड़कर तथा स्व स्वरूप में लीन होकर निश्चल होना। आचार्य भद्रबाहू का कथन है कि कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्तिभाव से चंदन लगाए या कोई द्वेष पूर्वक बसूले से शरीर का छेदन करे, चाहे उसका जीवन रहे या मृत्यु का वरण करना पड़े.- वह सब स्थितियों में सम रहता है। तभी कायोत्सर्ग विशुद्ध होता है। कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यञ्च संबंधी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थिति होने पर जो साधक उनको समभावपूर्वक सहन करता है, उसी का कायोत्सर्ग वस्तुतः सही कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग क्यों किया जाये ? इसका समाधान है कि 'संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए, आत्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिए, पाप कर्मों के निर्घात के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। __यह एक प्रकार का तप भी है। इस प्रकार प्रतिक्रमण के सदृश कायोत्सर्ग से साधक अतीत एवं वर्तमान के दोषों का शोधन करता है, फिर प्रायश्चित से विशुद्ध होकर कर्मभार से हल्का हो जाता है। तदनन्तर वह चिन्तारहित होकर शुभ (प्रशस्त) ध्यान में लगा हुआ सूखपूर्वक विचरण करताहै। इस कायोत्सर्ग को सब प्रकार के दुःखों से छुड़ाने वाला भी कहा गया है। वस्तुतः कायोत्सर्ग ध्यान-साधना का आवश्यक अंग होने से इसे षडावश्यक में सम्मिलित किया है। 1. कृष्ण यजुर्वेद-दर्शन और चिन्तन भाग-२ पृ.१९८ से उद्धृत 2. खोरदेह अवस्ता पृ. 4/23-24 3. आव.नि.गा. 1548-49 4. आवश्यक सूत्र-तस्सउत्तरी सूत्र 5. उत्तरा. 26.39 6. वही 29.13