________________ (277) का संदेश जिस परम्परा में हो, वहाँ उसके लिए अपवाद को स्थान भी कैसे हो सकता है? स्व रक्षा हेतु हिंसा का सहारा कदापि नहीं लिया जा सकता। मात्र संघ रक्षा हेतु ही अपवाद मार्ग का निर्देश किया गया है। अहिंसा के दो प्रकार-विधेयात्मक और निषेधात्मक अहिंसा के मुख्यतया दो रूप हैं1. निषेधात्मक 2. विधेयात्मक। 1.निषेधात्मक-निषेध से तात्पर्य है, किसी भी चीज को न होने देना। निषेधात्मक अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन न होना, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाना। आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, दशवैकालिक, आवश्यक प्रभृति आगमों में षट्काय को तीन करण, तीन योग से हानि न पहुँचाने का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, वह अहिंसा का निषेधात्मक रूप है। 2. विधेयात्मक-निषेधात्मक की तरह इसका विधेयात्मक रूप भी है। यदि अहिंसा के नकारात्मक पहलू से ही विचार किया जाये तो यह अहिंसा का अपूर्ण ज्ञान है। इसे पूर्ण रूप से समझने के लिए विधेयात्मक पहलू भी समझना होगा। प्रश्नव्याकरण' में अहिंसा के 60 नाम प्रतिपादित कियेगये हैं। जिनमें दया, रक्षा, अभय, समता आदि नाम विधेयात्मक पहलू पर प्रकाश डालते हैं। ___अहिंसा का निषेधात्मक स्वरूप निवृत्तिमूलक है, तो विधेयात्मक स्वरूप प्रवृत्तिमूलक है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दानों ही पहलुओं में अहिंसा समाहित है। यदि अहिंसा को निवृत्ति अथवा प्रवृत्ति मूलक मानकर इसके एक ही पहलू को स्वीकार किया जाये तो वह अहिंसा अधूरी है। एक दूसरे के अभाव में वह पूर्ण नहीं हो सकती। क्योंकि प्रवृत्ति रहित निवृत्ति भी निष्क्रिय है। असद् आचरण से निवृत्ति होकर सदाचरण में प्रवर्तन अहिंसा का वास्तविक स्वरूप है। प्रज्ञामूर्ति पं. सुखलालजी का कथन इसी समर्थन में है "अहिंसा केवल निवृत्ति में ही चरितार्थ नहीं होती उसका विचार निवृत्ति में से अवश्य हुआ है, किन्तु उसकी कृतार्थता प्रवृत्ति में ही हो सकती है। इस प्रकार अहिंसा के निषेधात्मक अर्थात् निवृत्तिपरक तथा विधेयात्मक अर्थात् प्रवृत्तिपरक पहलू पर ही इसका सर्वांगीण स्वरूप निहित है।" 1. प्रश्नव्याकरण-आस्रवद्वार प्रथम अध्ययन.. 2. अहिंसा के आचार और विचार का विकास-पं. सुखलाल पृ.७-९