________________ (309) प्रयास करता है, वहाँ वह दूसरी ओर अपनी अनुकूलता और दृष्टिकोण से लोकोत्तर पक्ष को भी सजाने-संवारने में लगा रहता है। जबकि साधु का कर्तव्य मात्र लोकोत्तर पक्ष को सुदृढ़ करना होता है। ___ लोकोत्तर पक्ष को सुन्दर बनाने में लगा साधु अपना कर्तव्य करता हुआ क्या वह राष्ट्र, समाज में उपयोगी हो सकता है? हमें इस पर विचार करना है। इस विचार को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है 1. सामाजिक क्षेत्र में साधु की भूमिका 2. आर्थिक क्षेत्र में साधु का योगदान 3. नैतिक मूल्यों की स्थापना में साधु का सहयोग 4. साहित्यिक साधना 5. शिक्षा प्रसार 1. सामाजिक क्षेत्र में जैन साधु की भूमिका अर्हत् ऋषभदेव ने पहले समाज की रचना की और फिर वे आत्मसाधना में लगे। भारतीय जीवन के विकासक्रम में उनकी यह देन प्रारंभिक एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ग्राम-नगर आदि की संयोजना एवं सुव्यवस्था इनके समय में हुई, तो लौकिक शास्त्र और लोक व्यवहार की शिक्षा भी तभी प्रचलित हुई। आधुनिक समाजव्यवस्था में उनकी बहुत बड़ी देन है। सामाजिक जीवन का सुसंचालन व्यक्तियों के सहयोग पर निर्भर है। यह सहयोग सहिष्णु गुण पर आधारित है। ज्ञान मूलक सहिष्णुता की अधिकता प्रेम को उत्पन्न करती है। जिस समाज में जितनी सहिष्णुता या सहनशीलता होगी, उसके अंगों में प्रेम का सम्पादन भी उतना ही अधिक होगा। प्रेम या स्नेह-सौहार्द्ध संगठन या एकता का आधारसूत्र है। साधु समाज में सहिष्णुता-समता गुण के विकास के लिए सतत प्रत्यनशील रहता है। वह स्वयं तो शत्रु-मित्र अर्थात् प्राणीमात्र पर क्षमाभाव रखता है और समाज के व्यक्तियों को अक्रोधभाव, क्षमा रखने का उपदेश देता है। समाज की इससे अधिक और क्या सेवा हो सकती है? जातिवाद-सम्प्रदायवाद का घुन समाज को खोखला किये जा रही है। जन्म से उच्चकुल की धारणा रखने वाले लोगों ने अपनी अहमन्यता में निम्नहीन कुलवाले लोगों पर अत्याचार किये हैं। इस क्षेत्र में साधु समाज ने क्रांतिकारी कदम उठाये हैं। इस रूढ़िवादिता को समूल नष्ट करने का प्रयास किया है।