________________ (308) बुद्ध के शासन में गुरु का रूप कल्याणमित्र का है और उसका कार्य है-पथ प्रदर्शन / शाक्यमुनि के शिष्यों को अपने बल पर ही चलना होता था, अपने बल पर ही निर्भर रहता था अर्थात् उनको आत्मदीप या आत्मशरण बनने का उपदेश दिया गया। इस साधनायात्रा में धर्म ही उनका सहायक और नियामक होता है। इसलिए धर्म को यान या मार्ग कहा गया है। धर्म ही बुद्ध की वास्तविक काया है। भिक्षुओं के अत्याज्य धर्मों में महत्त्वूपर्ण था आरण्यक शयनासन। यह धर्म एकान्तवास का माहात्म्य दर्शाता है। किन्तु बाद में क्रमशः सहवास का प्राधान्य बढ़ता गया। अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भिक्षु के खड्गविषाण सम (गेंडा जैसे) एकाकी जीवन की प्रशंसा की गई है। परन्तु यह भी निर्विवाद है कि बाद में एकाकिता का स्थान आवासिक्ता ने ले लिया। पौषध में भिक्षुओं के लिए नियतरूप से एकत्रित होना आवश्यक था और वर्षावास में इनका चारिका (एक गाँव से दूसरे गाँव जाना) का भी निषेध था। चुल्लवग्ग में बुद्ध अनाथपिंडिक को कहते हैं कि "विहारदान यह सर्व में श्रेष्ठ दान है, क्योंकि इसके कारण भिक्षु की समाधि में वर्षा, धूप, हिंसक पशु आदि अन्तरायें नहीं आती। जिससे सुज्ञ उपासकों को यथाशक्ति विहार बनवाकर विद्वान भिक्षुओं को आवास की सुविधाएँ देना चाहिए और उनको यथाशक्ति अन्नदान भी देना चाहिए।" इसका परिणाम यह आया कि भिक्षुओं में संगठित आवासिक जीवन का विकास हुआ। भिक्षुओं की संख्यावृद्धि और विहारों की समृद्धि से भिक्षुसंघ के संगठन में परिवर्तन आता गया। इससे बुद्धि ने भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिक्षुओं के अनुशासन हेतु नियम बनाए। ये नियमवाक्य शिक्षापद कहलाये। इन शिक्षापंदों का संग्रह धर्मविनय या विनय कहलाता है। विनय का अर्थ है 'अनुशासन हेतु शिक्षा'। (8) साधुत्व की उपयोगिता किन्ही लोगों का मन्तव्य है कि जैन दर्शन व्यक्तिवादी है, स्वार्थपरक है। वहाँ मात्र स्वार्थ को ही केन्द्रभूत रखा गया है, परमार्थ को नहीं। वस्तुतः जैन दर्शन. अध्यात्म के क्षेत्र में व्यक्ति के व्यक्तिवादी होने का समर्थन करता है, किन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में समष्टिवाद की मर्यादाओं का निषेध नहीं करता। जैन परम्परा में दो धाराएँ हमेशा से प्रवाहित रही है-गृहस्थ और साधु / गृहस्थ जीवन के दो पक्ष हैं। जहाँ गृहस्थ एक ओर अपने लौकिक पक्ष को सुदृढ़ और सुन्दर बनाने का 1. खग्गविसाणसुत्त, सुत्तनिपात