________________ (284) के दोषों को देखवा, चुगली करना, दान आदि सत्कर्म में अन्तराय डालना, अन्य जीवों के प्राणों का अपहरण करना, दूसरे के अधिकार को छीनना, किसी की भावना को ठेस पहुँचाना, किसी के साथ अन्याय करना आदि सभी तस्कर कृत्य हैं। अस्तेय महाव्रत के साधक को तस्कर वृत्ति के इन सभी प्रकारों का त्याग करना चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में अस्तेय महाव्रत के लिए स्पष्ट कथन है कि "मुनि गाँव में, नगर में या अरण्य में थोड़ी या बहुत, छोटी या बड़ी, सजीव या निर्जीव किसी वस्तु को बिना दिये हुए न ले, स्वामी की आज्ञा के बिना न ले, न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा दे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करें।" प्रश्नव्याकरण सूत्र में स्तेय की विविध व्याख्याओं में स्तेय की दो परिभाषा हैं-1. अर्थहरण 2. अधिकार हरण अस्तेय व्रत का संबंध अर्थ-पदार्थ से विशेष रूप से है। जीवित रहने के लिए प्राणी को अन्न , वस्त्र, आवास आदि पदार्थों की अनिवार्य आवश्यकता होती है। इनका उपयोग एवं उपभोग उसे करना पड़ता है। करने से पूर्व उसे अपनी सीमा, मर्यादा के बारे में सोचना पड़ता है। वह कितने और कौन से पदार्थ का अधिकारी है? किस विधि से उसे ग्रहण करना है? उसका उपयोग उचित है अथवा नहीं? उसके द्वारा दूसरों के अधिकारों का हनन न हो? अन्यों को जीवन जीने में कठिनाई न हो? ये सभी प्रश्न अस्तेय व्रत की महत्ता ज्ञापित करते हैं। साधु के लिए सामान्य नियम यही है कि वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति भिक्षा द्वारा ही करे। न केवल नगर में अथवा गाँव में वरन् अरण्य-वन में भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो वह किसी के दिये जाने पर ही ग्रहण करे। एक तिनका मात्र भी बिना दिये वह ग्रहण न करे। जैन परम्परा के अनुसार चौर्य कर्म भी एक प्रकार की हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि "अर्थ या सम्पत्ति प्राणियों का बाह्य प्राण है, क्योंकि इन पर उनका जीवन आधारित है इसलिए किसी भी वस्तु का हरण उसके प्राणों के हनन के समान है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में भी कहा गया है कि यह अदत्तादान (चोरी) संताप, मरण, एवं भयरूपी पातकों का जनक है, दूसरे के धन के प्रति लोभ उत्पन्न करता है। " 1. (दशवै, 4.13, 6.13-14) 2. (प्रश्न. आस्रद्वार अध्य. 3) 3. (मूलाचार 5.290) 4. (दशवैका.६.१४) ५.(पुरुषा 92) 6. (प्रश्न व्या. आस्रवद्वार अध्य.३)