________________ (301) 3. एषणा समिति एषणा अर्थात् आवश्यकता अथवा चाह / जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति साधु एवं श्रावक दोनों को ही करनी होती है। जिसमें आहार व स्थान प्रमुख है। साधु को याचना के द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति विवेक पूर्वक करना ही एषणा समिति है / एषणा को गवेषणा भी कहा जाता है। साधु आहार, वस्त्र, पात्र आदि पर ममत्व न रखकर, निर्दोष असन, वसन, पात्र को ग्रहण करें। उत्तराध्ययन में कथन है कि “आहार, उपधि तथा शय्या की गवेषणैसणा, ग्रहणैषणा तथा परिभोगैषणा ये प्रत्येक की जो तीन-तीन एषणाएँ हैं, उनकी विशुद्धि को अर्थात् गवैषणा, ग्रहण और ग्रास (परिभोग) सम्बन्धी दोषों से अदूषित ग्रहण करना एषणा समिति है। पुनः कथन है कि यतनावान साधु पहली गवेषणा में उदगम के सोलह और उत्पादन के सोलह दोषों की, दूसरी ग्रहणैषणा में एषणा के शंकितादि दस दोषों की शुद्धि करे तथा परिभोगैषणा में संयोजन प्रमाण, अंगार, धूम और कारण इन चार दोषों की विशुद्धि करे। तात्पर्य यह है कि आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र आदि को उद्गमादि के दोष टाल कर याचना, ग्रहण और भोग करे।" 4. आदान भण्ड निक्षेपण समिति साधु काम में आने वाली वस्तुओं को विवेकपूर्वक सावधानी से उठावे और उसे रखे। यह आदान निक्षेपणा समिति है। समितिवन्त साधु सदैव यातनापूर्वक आँखों से पडिलेहण (देखकर) और प्रमार्जन करके दोनों प्रकार की ओघ उपधि (जो सदैव पास में रहे) तथा औपग्रहिक (थोड़े समय के लिए ग्रहण की जाय) उपधि को ग्रहण करे और रखे। मुनि को वस्तु के ग्रहण-निक्षेपण में प्राणी-हिंसा न हो जावे इस प्रकार सावधानी पूर्वक सजग रहना चाहिये। 5. उच्चारादि प्रतिस्थापन परिस्थापनिका अर्थात् विसर्जन। उच्चार-वडीनीत (विष्ठा), प्रश्नवण-लघुनीत (मूत्र) खेल-श्लेक्ष्म (कफ), सिंघाण-नाक का मैल, जल्ल-शरीर का मैल, 1. उत्तराध्ययन 24.11 2. वही 3. उत्तराध्ययन 24.12 4. उत्तरा 24.13-14