________________ (304) 3. काय गुप्ति शारीरिक क्रिया संबंधी संरंभ, समारम्भ तथा आरम्भ में प्रवृत्ति न करना, उठते-बैठते, हिलने-चलने, सोने में संयम रखना। अशुभ कायिक व्यापारों का त्याग करना सत्प्रवृत्ति यतनापूर्वक करना कायगुप्ति है। साथ ही पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में शरीर की क्रियाओं का नियमन करना काय गुप्ति है। नियमसार में बंधन, छेदन, मारण, आकुंचन तथा प्रसारण आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है। उत्तराध्ययन सूत्र में उपर्युक्त पाँचों समिति चारित्र की प्रवृत्ति के लिए और तीनों गुप्ति अशुभ कार्य से सर्वथा निवृत्ति के लिए कही गई है। इस प्रकार समिति प्रवृत्तिरूप और गुप्ति निवृत्ति रूप है। नियमसार में इसे रागद्वेष आदि से निवृत्ति मनोगुप्ति, असत्यवचन से निवृत्ति एवं मौन वचन गुप्ति और शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग को काय गुप्ति कहा गया है। जो मुनि इन आठ प्रवचन माताओं का सम्यक् प्रकार से आचरण करता है, वह पंडित साधु संसार के समस्त बंधनों से शीघ्र छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता उपर्युक्त विवेचन से पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि अष्टप्रवचन माता साधुजीवन का आधार है। श्रमण जीवन का सम्यक् पालन इनके माध्यम से सुचारू होता है। जो इनके पालन में पूर्ण जागृत है, उसका आचार भी विशुद्ध होता है। बौद्ध परम्परा में समिति एवं गुप्ति बौद्ध परम्परा में यद्यपि समिति एवं उसके पाँच प्रकार के वर्गीकरण का उल्लेख नाम मात्र से, शब्दतः नहीं हुआ। तथापि जैन परम्परा में उल्लिखित पाँचों ही समितियों का विधान अवश्य वहाँ किया गया है। अर्थरूप से समिति का आशय बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। 1. वही 24.24-25 2. नियमसार 67 3. उत्तरा. 24.26 4. नियमसार 67-70 5. उत्तरा 24.27