________________ (299) "समितियों का समयक् प्रकार से पालन करनेवाल साधु जीवों से आकुलित इस विराट विश्व में रहते हुए भी पापों से लिप्त नहीं होता। जिसप्रकार एक योद्धा जिसने सुदृढ़ कवच धारण कर रखा है, उस पर भीषण बाणों की वर्षा भी उसे बींध नही सकती, उसी प्रकार समितियों का समयक् पालन करने वाला साधु जीवन के विविध कार्यों में प्रवृत्त होता हुआ भी पापों से निर्लिप्त रहता है।' 1. ईर्या समिति युग परिमाण अर्थात् चार हाथ आगे की भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना ईर्या समिति है। ईर्या का अर्थगमन है। गमन विषयक सत्यप्रवृत्ति ईर्या है। उत्तराध्ययन में कथन है कि साधु को चलते समय पांचों ही इंद्रियों के विषयों तथा पांचों प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर मात्र चलने की क्रिया में लक्ष रखकर चलना चाहिये। आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के तीसरे अध्ययन का नाम ही ईर्या है। इसमें ईर्या के विषय में विस्तृत चर्चा है। उसमें उल्लेख है कि 1. ईर्या का अर्थ यहाँ केवल गमन करना नहीं है। अपने लिये भोजनादि की तलाश में तो प्रायः सभी गमन करते हैं, उसे यहाँ ईर्या नहीं कहा गया, यहाँ तो साधु के द्वारा किसी विशेष उद्देश्य से कल्प-नियमानुसार संयमभावपूर्वक यतना एवं विवेक से चर्या (गमनादि) करना ईर्ष्या है।' 2. इस दृष्टि से यहाँ 'नाम-ईर्या', 'स्थापना ईर्या' 'तथा' 'अचित्तमिश्रद्रव्य ईर्या' को छोड़कर साधु के द्वारा 'सचित द्रव्य ईर्या, "क्षेत्रईर्या, कालईर्या से सम्बद्ध भावईर्या विवक्षित है। चरण ईर्या और संयम ईर्या के भेद से भाव ईर्या दो प्रकार की होती है। अतः-स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चारों का समावेश ईर्या में होता है। 3. इसी के अन्तर्गत किस द्रव्य के सहारे से, किस क्षेत्र में (कहाँ) और किस समय में (कब) कैसे एवं किस भाव गमन हो, इसका प्रतिपादन ईर्या में होता है। ईर्या समिति की विशुद्ध आराधना व साधना के लिए चार बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-1. आलम्बन 2. काल 3. मार्ग 4. यतना।' 1. मूलाराधना 6.1200-2 2. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति) 3. उत्तरा 24.8 4. आचा. टीका. पत्र 374. आचा.: नि. गा.६०५, 306 5. आचा. टीका पत्र 374, आचा. नि. 307 6. आचा. टीका पत्र 374 7. आचा. टीका पत्र 374, उत्तराध्ययन 24.4-8