________________ (282) 5. हास्य-मुक्ति वचन संयम रूप भावना हास्य सत्य का शत्रु है। हंसी मजाक में दूसरों के मन को तो पीड़ा होती है साथ ही असत्य वाणी का भी प्रयोग हो जाता है। साधु को हास्य का त्याग करना चाहिये। हास्य प्रसंगों में असत्य भाषण की संभावनाएँ रहती है। अतः हंसी मजाक का परित्याग करके संयम के द्वारा ऐसे संस्कार जागृत करे कि उसकी वाणी पूर्ण संयत, निर्दोष एवं यथार्थ हो। वह हित, मित, प्रिय, तथ्य व सत्य से संपृक्त वचनों को अपनी साधना का अंग बनाये। इस प्रकार साधु सत्य की इन पाँच भावनाओं का ध्यान रखकर तदनुसार प्रवृत्त होवे। जो इनके अनुसार व्यवहार करता है, उसने सत्य महाव्रत स्वीकार किया है, क्रियान्वित किया है। और जिनाज्ञा का पालन किया है। ऐसा कहा जा सकता है। जैन परमपरा में भाषा-सम्बन्धी विवेक का गंभीरतम चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में असत्य एवं अप्रिय सत्य को त्याज्य कहा है। उक्त कथन से यह तात्पर्य निकलता है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में भाषा संबंधी सत्य का स्थान अहिंसा के पश्चात्वर्ती इसीलिए है कि सत्य भी अहिंसा से परिपूर्ण हो एवं अहिंसा को पुष्ट करने वाला हो। अतएव सत्य को अहिंसक बनाने का प्रयास किया गया है। इस हेतु भाषा-व्यवहार में पूर्णतया सतर्कता रखने का उल्लेख किया गया है। यहाँ यह समझना भूल होगी कि जैन परम्परा में अहिंसा को विशेष महत्व दिया है, सत्य का कोई मूल्य नहीं। ___ जैन आचार्यों ने सत्य को महत्त्वपूर्ण स्थान ही नहीं दिया, उसे तो समग्र लोक में सारभूत कहा है। उनकी दृष्टि में सत्य तो भगवान् है (तं सच्चं भगवं)। श्रमण भगवान् महावीर ने स्पष्टतया कथन किया है कि "सत्य में मन की स्थिरता करो, जो सत्य का वरण करता है वह बुद्धिमान समस्त पापकर्मों का क्षय कर देता है। सत्य की आज्ञा में विचरण करने वाला साधक इस संसार से पार हो जाताहै।" सत्य महाव्रत के अपवाद सत्य महाव्रत के सन्दर्भ में आगम ग्रन्थों में कुछ अपवादों का भी उल्लेख किया गया है। यद्यपि इन अपवादों में सत्य के स्थान पर अहिंसा को पुष्ट करने का दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। क्योंकि जिन परिस्थितियों में सत्य और 1. आचा. 2.15.179 2. (प्रश्नव्याकरण सूत्र 2.2.) 3. (आचा. 1.3.2, 1.3.3.)