________________ (291) वेदों के प्रशस्त भाष्यकार सायण ने ब्रह्मचारी का अर्थ वेदात्मक ब्रह्म का अध्ययन करना जिसका स्वभाव है वह माना है। वेद ब्रह्म है। सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं (अपरिग्रह महाव्रत) यह साधु का पाँचवाँ महाव्रत है। परिग्रह का त्याग करना अपरिग्रह है। आचार्य उमास्वाति ने 'मूर्छा परिग्रहः 2 अर्थात् मूर्छा भाव परिग्रह है, यह उल्लेख किया है। आचार्य शय्यंभव ने भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए किया है। 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' स्पष्ट है परिग्रह का मूल इच्छाएँ, आसक्ति, तृष्णा, वासना है। साधु को सभी प्रकार के परिग्रह से विरत होना चाहिये। - 'परिग्रह' की व्याख्या प्रश्न व्याकरण सूत्र के टीकाकार करते हैं कि "जो सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करता है, वह परिग्रह है। " यहाँ सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करने का अर्थ मूर्छा बुद्धि से ग्रहण करना ही है। इसीलिए साधु को इनसे विरत होने का उपदेश दिया गया है। दशवैकालिक सूत्र में उल्लिखित है कि श्रमण को सर्व परिग्रह का चाहे वह अल्प हो या अधिक हो, चाहे वह सजीव (जीवनयुक्त-शिष्य आदि पर ममत्व रखना अथवा माता-पिता की आज्ञा के बिना किसी को शिष्य बनाकर अपने पास रखना) हो अथवा निर्जीव वस्तुओं का हो, छोटी हो या बड़ी हो त्याग करना चाहिये। साधु मन, वचन और काया से न परिग्रह रखे, न रखवावे और न परिग्रह रखने का अनुमोदन करे। परिग्रह रखने की वृत्ति आन्तरिक लोभ की ही द्योतक है। इसलिए जो श्रमण किसी भी प्रकार का संचय करता है, वह श्रमण न होकर गृहस्थ ही है। परिग्रह के भेद जैन आगमों में परिग्रह दो प्रकार का कहा गया है। साथ ही भगवती सूत्र में परिग्रह के तीन प्रकार भी बताये गये हैं-1. कर्म परिग्रह 2. शरीर परिग्रह 3. बाह्य भाण्डमात्र परिग्रह। 1. अर्थवेद 11.5.1, ११.५.१७(सायणभाष्य) 2. तत्त्वार्थ. 7.17 3. दश. 6.20-21 4. प्रश्न. वृत्ति 215 5. दश. 4.5 ६.दश.६.१९ 7. भगवती 18.7