________________ (286) समवायांग', आचारांगचूर्णि', आवश्यक चूर्णि में भी कुछ भिन्नता से साथ इन पाँच भावनाओं का उल्लेख किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में अन्य प्रकार से ये पाँच भावनाएँ उल्लेखित है1. शून्यागारवास-पर्वत की गुफा, वृक्ष आदि में रहना। 2. विमोचितावास-दूसरों के द्वारा छोड़े हुए मकान आदि में रहना। 3. परोपरोधाकरण-दूसरों को ठहरने से न रोकना। 4. भैक्ष शुद्धि-आचारशास्त्र में बताई विधि अनुसार भिक्षाग्रहण। 5. सधर्माविसंवाद-मेरा-तेरा करके साधर्मिक से विसंवाद न करना। इन भावनाओं का निरूपण व्रतों की सुरक्षा के लिए किया गया है। 1 इन भावनाओं के अनुचिन्तन से साधु का हृदय सरल और निश्चित बनता है। उसके मन में अचौर्यभाव के संस्कार सुदृढ़ बनते हैं। वह भूल कर भी अज्ञातरूप में भी किसी की वस्तु का अपहरण नहीं करता, अधिकारों का हरण नहीं करता, उपकारी के उपकार को भूलता नहीं। उसका जीवन उत्तरोत्तर प्रशस्त होता जाता है। सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं-(ब्रह्मचर्य महाव्रत) यद्यपि महाव्रतों की परिगणना में क्रमानुसार इसका चतुर्थस्थान है, तथापि अपनी महिमा व गरिमा के कारण सभी व्रतों में प्रमुख स्थान रखता है। इसका कारण यह है कि इस महाव्रत का कोई अपवाद नहीं। साधु को इस महाव्रत का पालन अकाट्य रूप से करना होता है। किसी भी अपवाद मार्ग का सेवन नहीं किया जा सकता। प्रश्नव्याकरण सूत्र में इसकी यशागोथा का गुणगान करते हुए उल्लेख है कि "जैसे श्रमणों में तीर्थंकर श्रेष्ठ है वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। जो इस ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना कर लेता है, वह समस्त व्रत नियमों की आराधना कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जो इस दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है उसे देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी नमस्कार करते हैं। सूत्रकृतांग में इसे सभी तपों में श्रेष्ठ स्वीकार किया गया है। इसकी श्रेष्ठता ज्ञापित करते हुए प्रश्न व्याकरण में कथन है कि यह तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व, विनय का मूल है, सभी को शक्ति प्रदान करता है।" 1. प्रश्न. संवर द्वार, अध्य. 4 2. सूत्र. 1, 6, 23 3. प्रश्न संवर द्वार अध्य. 1 4. प्रश्न.९