________________ (256) 9. मासकल्प साधु एक स्थान पर स्थिर होकर न रहे। साधु के लिए सामान्य नियम यह है कि वह गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक न रहे। किन्तु भगवान् महावीर ने इस स्थितिकाल में परिवर्तन करके अधिक से अधिक एक स्थान पर एक मास तक रूकने की अनुमति प्रदान की है। इससे अधिक निषिद्ध किया है। किन्तु 22 तीर्थंकर के श्रमण वे चाहें तो एक स्थान पर दीर्घकाल तक रह सकते हैं। अथवा शीघ्र ही प्रस्थान भी कर सकते हैं। इस कल्प का ध्येय है कि सतत भ्रमण से अनासक्त वृत्ति रहती है और जन सम्पर्क व जनकल्याण भी अधिकाधिक हो सकता है। 10. पर्युषण कल्प पर्युषण का अर्थ है-आत्मा के समीप रहना। चातुर्मास काल में एक स्थान पर रहकर तप, संयम और ज्ञान की आराधना करना। इन साधनों से आत्मा के अधिकाधिक समीप रहा जा सकता है। पहले व अन्तिम तीर्थंकर के लिए पर्युषण कल्प अनिवार्य है, किन्तु 22 तीर्थंकरों के श्रमणों के लिए नहीं। वे वर्षा आदि के कारण ठहरते भी थे और कारणाभाव में विहार भी कर देते थे। इनमें छः कल्प अस्थिर तथा चार कल्प अवस्थित है। इस प्रकार जैन परम्परा में इन कल्पों का विधान किया गया है, जो कि साध्वाचार के आवश्यक अंग भी है। बौद्ध परम्परा और कल्पविधान __ जैन सम्मत दस कल्पों का विधान बौद्ध परम्परा में है या नहीं, उसका अवलोकन करें। आचेलक्य कल्प के अनुसार ही यहां भी बौद्ध भिक्षु दीक्षित होने के समय ही यह निश्चित करता है कि मैं अल्प एवं जीर्ण वस्त्रों में संतुष्ट रहूँगा।' बुद्ध ने प्रमाणोपेत वस्त्रों का ही भिक्षु के लिए विधान किया है। औद्देशिक कल्प के लिए कुछ विधान नहीं है तो राजपिण्ड व शय्यातर का भी प्रश्न वहाँ नहीं है। कृतिकर्म में दोनों परम्परा समान है। दीक्षावय में ज्येष्ठ भिक्षु का सत्कार व सम्मान व 1. बृहत्कल्पभाष्य 1.36 2. कल्पसमर्थन गा. 28 प. 2 3. आव. मलय. वृत्ति प. 121 4. विनयपिटक-महावग्ग 1.2.6