________________ (273) दशवकालिक में इसे और पुष्ट किया है कि जानबूझ कर या अनजाने में भी इन त्रिविध प्रकारों से हिंसा न करे। भिक्षु के लिए प्राण वध त्याज्य क्यों है? उससे आत्मगुणों का भी घात होता है। जगत् के सर्व प्राणियों को आयुष्य, जीवन प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं। दुःख प्रतिकूल होता है। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं। अंतः षट्जीव निकाय के जीवों की स्वयं हिंसा न करे, न अन्य से कराये और जो करता है उसका अनुमोदन भी न करे। श्रमण जीवन में अहिंसा का पालन किस प्रकार करे? उसकी परिपालना व रक्षा कैसे करनी चाहिए? उसका विस्तृत वर्णन आचाराङ्ग सूत्र, दशवैकालिक सूत्र आदि ग्रन्थों में किया गया है कि "समाधिवंत संयमी साधु तीन करण एवं तीन योग से पृथ्वी आदि सचित मिट्टी के ढेले आदि न तोड़े, न उनको पीसे। सजीव पृथ्वी पर न बैठे। सचित्त धूलि से भरे आसन पर भी न बैठे। इसी प्रकार सचित्त,जल, वर्षा, ओले, बर्फ, ओस के जल का न स्पर्श करे और न पीवे। वह मात्र अचित्त (प्रासुक या गर्म) जल का ही प्रयोग करे। अंगार, ज्वाला आदि किसी प्रकार की अग्नि का स्पर्श न करे और न ही उसे उत्तेजित करे, सुलगावे नहीं और बुझावे भी नहीं। साधु किसी प्रकार की दवा न करे, उष्णता को सहन करे। फूंक भी न दे। इसी प्रकार तृण, वृक्ष, फल, फूल, पत्ते का स्पर्श न करे, न तोड़े या हानि पहुँचावे। एकेन्द्रिय की भांति बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय आदि त्रस प्राणियों की भी मन-वचन-काया से हिंसा न करे। अतः आचारांग में स्पष्टता उल्लिखित है कि "सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्वों को न मारना चाहिये, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न उन पर प्राणापहार उपद्रव करना चाहिए-यह अहिंसा रूप धर्म ही शुद्ध है, शाश्वत है। " हिंसा तीन प्रकार की होती है-1. संरंभ 2. समारंभ 3. आरम्भ व्यक्ति के अन्तर्मन में हिंसा की भावना उत्पन्न होना, हिंसा के सम्बन्ध में सोचना, मन में उसके लिए योजना संरभ है। यह एक प्रकार से वैचारिक और मानसिक हिंसा है। 1. दश. 6.10 2. प्रश्न व्याकरण संवर द्वार 1 3. आचा. 1.2.3.78 4. वही 1.1.1-62 5. आचा. 1.1.1-7 उद्देशक, दश. 6.10 6. आचा. 1.4.1