________________ (258) अनुसार औद्देशिक कल्प पर, राजपिण्ड व शय्यातर कल्प पर जोर दिया गया है वैसा-बौद्ध एवं वैदिक परम्परा में विधान नहीं किया गयाहै। इसके पालन के मूल में अहिंसा व्रत को विशेषरूप से पुष्ट किया गया है। जैन परम्परा जितनी सूक्ष्मता से अहिंसा का विचार करती है, उतना विचार अन्य परम्परा में नहीं किया गया। फिर भी मूल मन्तव्य की दृष्टि से विशेष दूरी नहीं है। (ग) भिक्षु प्रतिमाएँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा-विशेष। भिक्षावृत्ति से गोचरी ग्रहण करने वाले साधुओं को भिक्षु कहा जाता है। भिक्षु-प्रतिमाएँ उन भिक्षुओं द्वारा आचरित होती हैं, जिनका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और श्रुतज्ञान विशिष्ट होता है। पंचाशक के अनुसार-"जो मुनि विशिष्ट संहनन सम्पन्न, धृति सम्पन्न और शक्ति-सम्पन्न तथा भावितात्मा होता है, वही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं का स्वीकार कर सकता है। उसकी न्यूनतम श्रुत-सम्पदा नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ठ श्रुत सम्पदा कुछ न्यून दस पूर्व की होनी चाहिये। ये भिक्षु प्रतिमाएँ बारह हैं - 1. एक मास की भिक्षु प्रतिमा 2. दो मास को 3. तीन मास की 4. चारमास की, 5. पाँच मास की 6. छ: मास की 7. सात मास की 8. प्रथम सप्त रात्रिं दिवा भिक्षु प्रतिमा 9. द्वितीय सप्तरात्रिंदिवा प्रतिमा 10. तृतीय सप्तरात्रिंदिवा प्रतिमा 11. अहोरात्रिक प्रतिमा 12. एक रात्रिक भिक्षु प्रतिमा. एक मास की भिक्षु प्रतिमा इस प्रतिमा के धारी भिक्षु को काया पर से ममत्व छोड़कर एक मास तक आने वाले सभी देव, मनुष्य और तिर्यञ्च-कृत उपसर्गों को सहना होता है। वह एक मास तक शुद्ध निर्दोष भोजन और पान की एक-एक दत्ति ग्रहण करता है। एक बार में अखण्ड धार से दिये गये भोजन या पानी को एक दत्ति कहते हैं। वह गर्भिणी, अल्पवयस्क बच्चे वाली, बच्चे को दूध पिलाने वाली, रोगिणी आदि स्त्रियों के हाथ से भक्त-पान को ग्रहण नहीं करता। वह दिन के प्रथम भाग में ही गोचरी निकलता है। वह कहीं भी एक या दो रात से अधिक नहीं रहता। विहार करते हुए जहाँ भी सूर्य अस्त हो जाय, वहीं ठहर कर रात्रि व्यतीत करता है। मार्ग में चलते हुए पैर में कांटा लग जाये या आँख में किरकिरी चली जाय, तो वह 1. श्री पंचाशक 18.4-5 2. समवायांग 12.1