________________ (270) साधु प्रकृति से वक्र भी थे और जड़ भी। इसलिए महाव्रतों के निरूपण में भेद आया। बाईस तीर्थंकर के साधु बहिर्दान (परिग्रह) के अन्तर्गत स्त्री को भी परिग्रह मानकर परित्याग कर देते थे। इस प्रकार चातुर्याम और पंचमहाव्रत की संख्या में भेद हुआ। वस्तुतः संख्याभेद होने पर भी व्रतों की परिपालना में, प्रयोग में अन्तर नहीं हुआ है। (3) पंच महाव्रत श्रमण जीवन की आधार शिला पंचमहाव्रत हैं। साथ ही इनको मूलभूतगुण भी मान्य किये गये हैं। जैन परम्परा में पंच महाव्रत निम्नलिखित हैं - 1. सव्वाओपाणाइवायाओ वेरमणं (अहिंसा) 2. सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं (सत्य) 3. सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं (अस्तेय) 4. सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं (ब्रह्मचर्य) 5. सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं (अपरिग्रह) ये पाँचों ही व्रत श्रावक (गृहस्थ) एवं श्रमण (साधु) दोनों के लिए ही कथित है। फर्क इतना ही है कि, साधु उन पंच महाव्रतों का पालन अकाट्य रूप से, पूर्णरूपेण पालन करता है। जबकि गृहस्थों के लिए ये अणु रूप से पालन करने होते हैं। इसीलिए साधु को तो इन महाव्रतों की परिपालना नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय एवं कृत, कारित तथा अनुमोदित 3 x 3 = 9 कोटियों सह करना होता है। इन पंच महाव्रतों के अतिरिक्त एक व्रत और है जिसका पालन भी साधु को अनिवार्यतः करना होता है वह है 6. सव्वाओ राइ भोअणाओ वेरमण। श्वेताम्बर परम्परा में रात्रि-भोजन को साधु का छठा व्रत मान्य किया गया है एवं दिगम्बर परम्परा में यह मूलगुण के रूप में उल्लिखत है। जैन परम्परा की भांति बौद्ध परम्परा मान्य दस भिक्षु-शील के अन्तर्गत 6 शीलों से महाव्रत-व्रत साम्य रखता है। बौद्ध परम्परा में दस शील है-1. प्राणातिपात विरमण, 2. अदत्तादान विरमण, 3. अब्रह्मचर्य या कामेसु-मिच्छाचार विरमण, 1. उत्तरा. 23.23-26 2. पाक्षिक सूत्र 3. पाक्षिक सूत्र, दशवैका.६.२३-२४, 4.6