________________ (268) 2. यावत्कथित सामायिक ___ यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थकर भगवान् के सिवाय शेष बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक होती है। क्योंकि इन तीर्थंकरों के साधुओं को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता है।' 2. पंचमहाव्रत-छेदोपस्थापनीय जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों की उपस्थापना/आरोपण होता है, उसे छेदोपस्थापनिक चारित्र कहते हैं। अथवा पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं उसे भी इसी चारित्र से अभिहित किया जाता है। यह चारित्र भरत, ऐरावत, क्षेत्र के प्रथम एवं चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। इसके भी दो भेद हैं-1. निरतिचार 2. सातिचार __ 1.निरतिचार-इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है। 2. सातिचार-मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह सातिचार छेदोपस्थापनिक चारित्र है।' छेदोपस्थापनीय चारित्र को स्वीकारने वाले व्यक्ति को विभागशः महाव्रतों का स्वीकार कराया जाता है। छेद का अर्थ विभाग है। भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के निर्विभाग सामायिक चारित्र को विभागात्मक सामायिक चारित्र बना दिया और वही छेदोपस्थापनीय के नाम से प्रचलित हुआ। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि जो चातुर्याम-धर्म का पालन करते थे, उन मुनियों के चारित्र को सामायिक कहा जाता था और जो मुनि सामायिक-चारित्र की प्राचीन परम्परा का त्याग करके पंचयाम-धर्म में प्रव्रजित हुए, उनके चारित्र को छेदोपस्थापनीय कहा गया है। 1. विशेषा. 1264 2. वही 1268 3. वही 1269 4. सन्दर्भ उत्तराध्ययन एक समीक्षात्क अध्ययन पृ. 126 5. भगवती 25.7.786