________________ (266) पार्श्व के उत्तरकालीन है। अतः पूर्वकालीन व्रत-व्यवस्था को उत्तराकीलन व्रत व्यवस्था ने प्रभावित किया, यह कैसे माना जा सकता है? भगवान् पार्श्व के उत्तरक़ालीन भगवान् महावीर है। भगवान् महावीर ने भगवान पार्श्व के व्रतों का ही विकास किया है। अन्य किसी परम्परा का अनुसरण करके नहीं। धर्मानन्द कौंसबी' भी यही स्वीकार करते हैं कि पार्श्वनाथ का धर्म महावीर के पंचमहाव्रतों में परिणत हुआ है। वही धर्म बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग में और योग के यम-नियमों में प्रकट हुआ। गाँधीजी के आश्रमधर्म में भी प्रधानतया चातुर्याम-धर्म दृष्टिगोचर होता है। हिन्दुधर्म और जैनधर्म आपस में घुलमिलकर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दु यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं। जैन धर्म का बहुत बड़ा भाग व्रत और अव्रत की मीमांसा है। संभवतः अन्य किसी भी दर्शन में व्रतों की इतनी मीमांसा नहीं हुई। चौदह गुणस्थानों-विशुद्धि की भूमिकाओं में अव्रती चौथे, अणुव्रती पाँचवें और महाव्रती छठे गुणस्थान का अधिकारी होता है। यह विकास दीर्घकालीन परम्परा का है, तत्काल गृहीत परम्परा का नहीं। 1. साधु के व्रत 1. सामायिक 2. पंचमहाव्रत आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में बढ़ने के लिए सर्वप्रथम तदनुरूप आचरण भी आवश्यक होता है। पंच परमेष्ठी पद पूर्णता की दिशा के चरण है। इसका पहला प्रयास साधु पद में है। गृहस्थ जीवन का परित्याग करके साधक सावध (पापकारी) योगों से पूर्णतया बचने के लिए संयम अंगीकार करता है। सर्व बाह्य (स्वजन) एवं आंतरिक (आसक्ति) परिग्रह का त्याग करके कर्म क्षय हेतु कटिबद्ध होता है। जैन परम्परा में इसे 'भागवती-दीक्षा' संज्ञा से अभिप्रेत किया जाता है। अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए कर्म संचय को दूर करने के लिए मोक्षाभिलाषी आत्मा सर्व सावध योगों से निवृत्त होने के लिए चारित्र पथ पर आरूढ़ होता है। संयम, चारित्र, दीक्षा इस अपेक्षा से समानार्थक शब्द है। भगवान् महावीर के शासन में दीक्षार्थी को प्रथम सामायिक चारित्र प्रदान 1. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म पृ. 6.