________________ (265) बृहदारण्यक उपनिषद् में हुआ, उसमें सन्यास को 'आत्म-जिज्ञासा के बाद होने वाली स्थिति' कहा है। और वे पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकेषणा से व्युत्थान कर भिक्षाचर्या करते थे। जबकि श्रमण परम्परा में मुख्य रूप से कथन है कि "लोकेषणा मत करो। ऐसे अनेकानेक सन्दर्भ है जहाँ इन एषणाओं के त्याग का उपदेश दिया गया है।' इसके विपरीत वैदिक परम्परा में तो इसको महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। पुत्रोत्पत्ति अर्थात् पुत्र का मुख-दर्शन पिता को हो जाए तो उसका ऋण छूट जाता है। और वह अमर हो जाता है। इन उद्धरणों से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि वैदिक परम्परा में पुत्रोत्पत्ति को प्रधान माना है, जबकि श्रमण परम्परा इन सबको त्याग करके सन्यास ग्रहण करने का उपदेश देती है।" . जैन-दर्शन का सन्यास नितान्त आत्मवाद पर आधारित है। आचार की आराधना आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी कर सकते हैं। जब तक आत्म-जिज्ञासा नहीं होती, तब तक सन्यास का प्रश्न ही नहीं हो सकता। इससे यही परिलक्षित होता है कि आत्म-जिज्ञासा पर आधारित सन्यास श्रमणों की दीर्घ परम्परा है। तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्व के समय श्रमण संघ सुसंगठित था। उपनिषद् का रचनाकार उनसे पहले नहीं जाता। भगवान् पार्श्व का अस्तित्व काल ई. पू. दसवीं शताब्दी है", और उपनिषदों का रचनाकाल प्रायः ई. पू. 800 से 300 के बीच का है। इस स्थिति में यह माना जा सकता है कि संन्यास और व्रतों की व्यवस्था के लिए श्रमण धर्म वैदिक धर्म का ऋणी नहीं है। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक-साहित्य में महाव्रतों का उल्लेख किंचित् मात्र भी नहीं है। उपनिषद-पुराणों और स्मृतियों में जो उल्लेख मिलता है, वे भगवान 1. बृहदारण्यक 4.4.22 2. वही 3. आचारांग 1.4.1.128 4. उत्तराध्यानन 14.9, 14.12 5. आचारांग 1.1.1.5 6. उद्धरणः मुनि नथमल: उत्तराध्ययन एवं समीक्षात्मक अध्ययन पृ-. 38. 7. महापुराणः पर्व 74 पृ. 462, देखिए जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पृ. 21. 8. (क) History of Sanskrit Literature P. 226 (ख) A. B. Kieth: The Religion and Philosophy of the Veda and Upanisadas P. 20