________________ (269) प्रस्तुत छेदोपस्थापनीय चारित्र में व्रत का भंग नहीं है। अर्थात् सामायिक का त्याग नहीं है वरन् विशेष व्रत शुद्धि है। सामायिक की अपेक्षा इसमें पंचमहाव्रतों का उपस्थापन-आरोपण यह विशेष व्रत विशुद्धि का सोपान है। 2. चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रत महाव्रतों के निरुपण की दो परम्पराएँ हैं- 1. चातुर्याम परम्परा 2. पंचमहाव्रत परम्परा। ये दोनों ही परम्पराएँ श्रमणों की स्थिति के आधार पर निर्मित हुई है। अर्हत् अजित से लेकर अर्हत् पार्श्व तक की परम्परा चातुर्याम की थी अर्थात् श्रमणों के चार व्रत थे। किन्तु अर्हत् ऋषभदेव और अर्हत् महावीर ने पंचयाम-पंच महाव्रत प्ररूपित किये। भगवान् पार्श्व के चातुर्यामधर्म में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामक व्रतों की व्यवस्था नहीं थी। उनकी व्यवस्था में बाह्य वस्तुओं की अनासक्ति का सूचक शब्द था 'बहिस्तात्-आदान-विरमण'२ भगवान् महावीर ने इस व्यवस्था में परिवर्तन किया और 'बहिस्तात्-आदान-विरमण' को 'ब्रह्मचर्य' और अपरिग्रह इन दो शब्दों में विभक्त कर दिया। ब्रह्मचर्य शब्द वैसे वैदिक साहित्य में भी प्रचलित था। किन्तु भगवान महावीर ने उसे महाव्रत के रूप में प्रयुक्त किया। जबकि महाव्रत के रूप में वैदिक साहित्य में प्रचलित नहीं था। अपरिग्रह शब्द का भी सर्वप्रथम महाव्रत के रूप में भगवान महावीर ने ही प्रयोग किया था। यद्यपि जाबालोपनिषद्, नारदपरिव्राजकोपनिषद्, तेजोबिन्दूपनिषद्', याश्यवल्यक्योपनिष, आरुणिकोपनिषद्, गीता योगसार आदि में अपरिग्रह शब्द का उल्लेख मिलता है, तथापि ये सभी ग्रन्थ भगवान् महावीर के उत्तरवर्ती है। उनके पूर्ववर्ती ग्रन्थ में अपरिग्रह शब्द का महाव्रत के रूप में प्रयोग नहीं हुआ। क्या कारण था कि भगवान् महावीर को चातुर्याम परम्परा में परिवर्तन करना पड़ा। क्या बाईस तीर्थंकरों के समय ब्रह्मचर्य आवश्यक नहीं था? इसका समाधान करते हुए कथन है कि प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु जड़ थे और चरम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ी थे। पहले के लिए धर्म समझना कठिन था। सरलता के कारण सब कुछ समझाना पड़ता था, क्योंकि वे साथ में जड़ भी थे। जबकि भगवान् महावीर के 1. विशेषा. 1266-67 4. नारदपरि. 3.8.6 7. आरूणिक.३ 2. उत्तरा. 23.23 5. तेजोबिन्दु. 2.3 8. गीता 6.10 3. जाबाल. 3.5 ६.याश्वल्क्य 2.1 9. योगसार 2.30