________________ (262) 3. कुशील जिसका चरित्र कुछ-कुछ मलिन हो गया हो। मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगाने वाला कुशील निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके दो प्रकार है-1. प्रतिसेवनाकुशील 2. कषायकुशील। इन्द्रियों का वशवर्ती होने से उत्तर गुणों की विराधनामूलक प्रवृत्ति करने वाला प्रति सेवना कुशील है। और कभी भी तीव्र कषाय के वश न होकर कदाचित् मंद कषाय के वशीभूत हो जाने वाला कषायकुशील है। दोनों के भी पाँच पाँच प्रकार है-1. ज्ञान 2. दर्शन 3. चारित्र 4. लिंग 5. यथासूक्ष्म।' 1. ज्ञानकुशील-काल, विनय आदि ज्ञानाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला। 2. दर्शनकुशील-निष्कांक्षित आदि दर्शनाचार की प्रतिपालना नहीं करने वाला। 3. चारित्रकुशील-कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्र, निमित्त, आजीविका, कल्ककुरुका, लक्षण, विद्या तथा मन्त्र का प्रयोग करने वाला। 4. लिंगकुशील-वेष से आजीविका करने वाला। 5. यथासूक्ष्मकुशील-अपने को तपस्वी आदि कहने से हर्षित होने वाला। 4. निर्ग्रन्थ जिसका मोहनीय कर्म छिन्न हो गया हो, वह निर्ग्रन्थ साधु है। निर्ग्रन्थ भी पाँच प्रकार के होते है 1. प्रथम समय निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ की काल स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है। उस काल में प्रथम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। 2. अप्रथमसमय निर्ग्रन्थ-प्रथम समय के अतिरिक्त शेष काल में वर्तमान निर्ग्रन्थ। 3. चरमसमय निर्ग्रन्थ-अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। 4. अचरमसमय निर्ग्रन्थ-अन्तिम समय के अतिरिक्त शेष समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ। 5. यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ-प्रथम या अन्तिम समय की अपेक्षा किए बिना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निर्ग्रन्थ / 1. वही 5.187 2. स्था. 5.188