________________ (248) इस प्रकार प्रतिक्रमण जैन साधना का प्राणतत्त्व है, जो कि साधक के जीवन की अपूर्व क्रिया है। बौद्ध एवं वैदिक परंपरा में समान रूप से इसे महत्त्व दिया गया है। वास्तव में यह परंपरा न्यूनाधिक रूप से सब परंपराओं में रही है। बौद्ध परंपरा में प्रवारणा बौद्ध परंपरा में प्रतिक्रमण के स्थान पर प्रतिकर्म, प्रवारणा और पापदेशना नाम प्राप्त होते हैं। उदान में उल्लेख है कि "जीवन की निर्मलता एवं दिव्यता के लिए पापदेशना आवश्यक है। पाप के आचरण की आलोचना करने से भार हल्का हो जाता है। बौद्ध आचार-दर्शन में प्रवारणा के नाम से पाक्षिक प्रतिक्रमण की परंपरा स्वीकार की गई है। बोधिचर्यावतार में तो आचार्य शांतिदेव ने पाप देशना के रूप में दिन और रात्रि में तीन-तीन बार प्रवारणा का उल्लेख किया है। उनका कथन है कि तीन बार रात में और तीन बार दिन में त्रिस्कन्ध (पापदेशना, पुण्यानुमोदना और बोधि परिणामना) की आवृत्ति करनी चाहिये। इससे अनजान में हुई आपत्तियों का उससे शमन हो जाता है। पुनः उनका कथन है कि जो भी प्रकृति सावध और प्रज्ञप्ति सावध पाप मुझ अबोध मूढ़ ने कमाये, उन सबकी देशना, दुःख से घबराकर, मैं प्रभुओं के सामने हाथ जोड़कर बारम्बार प्रणाम करता हूँ। हे नायकों, अपराध को अपराध के रूप में ग्रहण करो। हे प्रभुओं, मैं यह पाप फिर न करूँगा। जैन परंपरा के अनुसार के 25 मिथ्यात्व, 14 ज्ञानातिचार, 18 पाप स्थान का आचरण अथवा मूलगुण का भंग प्रकृति सावध हैं, क्योंकि इनसे दर्शन, ज्ञान चारित्र का मूलोच्छेद होता है एवं व्रत व प्रतिज्ञा में लगने वाले दोष या स्खलनाएं प्रज्ञप्ति सावध है। प्रवारणा के लिए यह भी आवश्यक माना गया है कि वह संघ के सानिध्य में ही हो। इस प्रकार बौद्ध परंपरा में प्रतिक्रमण रूप दृष्टिगोचर होता है। वैदिक परंपरा वैदिक पंरपरा में प्रतिक्रमण की भांति संध्या करने का विधान है, जो कि प्रात:काल एवं सायंकाल दोनों समय की जाती है। कृष्णयजुर्वेद में जिस मंत्र का उच्चारण किया जाता है, वह प्रतिक्रमण विधि का संक्षिप्त स्वरूप ही है। उसमें 1. उदान 5.5 2. बोधिचर्यावतार 5.98 3. वही 2.64-66