________________ (178) जैन परम्परा के आचार एवं भेद-प्रभेद नवाङ्गी टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने आचार शब्द के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं-1. आचरण 2. आसेवन 3. व्यवहरण ___ जैन आगम ग्रन्थों में विभिन्न दृष्टिकोणों से भी भेद-प्रभेद किये हैं। स्थानाङ्ग में श्रुतधर्म और चारित्रधर्म के अनुसार दो भेद हैं, तो तत्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप में तीन भेद हैं। उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चार भेदों की प्ररूपणा है। तो कहीं ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच भेदों का निरूपण है। वास्तव में सूक्ष्मता से देखा जाये तो हमें ज्ञात होता है। कि संख्याभेद होने पर भी सैद्धान्तिक दृष्टि से मौलिक अन्तर नहीं है। क्योंकि श्रुतधर्म में सम्यग्दर्शन और ज्ञान का समावेश हो जाता है, तो चारित्रधर्म में चारित्र और तप का। आचार के पाँच भेदों में भी प्रथम दो का ज्ञान में और अन्तिम तीन का चारित्र में समाहार किया जा सकता है, क्योंकि तप और वीर्य ये दोनों ही चारित्र साधना के अंग है। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया में, आचार और विचार में सभी भेदों का समावेश हो जाता है। आचार शुद्धि के सोपानः पंचाचार आचार्य जिन पंचाचारों का स्वयं पालन करते हैं करवाते हैं, वे निम्न हैं 1. ज्ञानाचार-मानव का क्रियात्मक पक्ष आचार है। आचार ही ज्ञान का सार है। पाँच प्रकार के आचारों में प्रथम ज्ञानाचार है। ज्ञान के पाँच भेद हैं, यथा-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान। इन पाँच भेदों में से श्रुतज्ञान को ही आचारण युक्त माना गया है, अन्य को नहीं। क्योंकि श्रुतज्ञान ही व्यवहारात्मक है।' आचार्य संघदासगणि ने निशीथ भाष्य में ज्ञानाचार के आठ भेद दर्शाये हैं, जो निम्न हैं। (1) काल-जिस काल में जो कार्य निर्दिष्ट है, उसी काल में वह कार्य किया जाये। १.(क) आचरणमाचारो व्यवहारः स्था. वृत्ति, पत्र-६० (ख) आचरणमाचारो ज्ञानादि विषयासेवेत्यर्थः। स्था. वृत्ति पत्र 309 2. स्थानाङ्ग 2.72 3. तत्त्वार्थ सूत्र 1.1 4. उत्तराध्ययन 28.2 5. स्था.५ 6. तत्त्वार्थसूत्र 1.1 7. अनुयोगद्वार 2. 8. निशीथभाष्य गा. 8-1