________________ (226) षट्खंडागम' में कथन है कि "जो अनंत ज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं। जो पंच महाव्रतों को धारण करते हैं तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अट्ठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं तथा चौरासीलाल उत्तर गुणों का पालन करते हैं।" सिंह समान पराक्रमी, हाथी समान स्वाभिमानी अथवा उन्नत, बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग समान सरल, पशु समान निरीह गोचरी वृत्ति करने वाले, पवन सदृश निःसंग अथवा सर्वत्र रूके बिना विचरने वाले, सूर्यसमान तेजस्वी अथवा सकल तत्त्वों के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर सम गंभीर, मंदराचल अर्थात् सुमेरू पर्वत समान परीषह एवं उपसर्गों के आने पर अकंप एवं अडोल रहने वाले, चंद्र सम शांतिदायक, मणिसमान प्रभाज युक्त, पृथ्वी के सदृश सर्व प्रकार की बाधाओं को सहन करने वाले, उरग अर्थात् सर्प के समान अन्य द्वारा निर्मित अनियत आश्रय-वसतिका आदि में निवास करने वाले, अंबर अर्थात् आकाश समान निरालंबी अथवा निर्लेप और सदाकाल परमपद अर्थात् मोक्ष का अन्वेषण करने वाले साधु हैं। वे संपूर्ण कर्मभूमिओं में उत्पन्न होने वाले त्रिकालवर्ती साधु है।" इस प्रकार अनेकशः साधु परमेष्ठी के व्युत्पत्तिनियुक्ति परक अर्थ किये गये हैं। निश्चय साधु के लक्षण साधु में क्या-क्या लक्षण होने चाहिये, उसका उल्लेख है कि "जिसके शत्र और बंधुवर्ग समान है, प्रशंसा और निंदा के प्रति जिसको समता है, लोष्ठ (ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन व मरण के प्रति जिसको समता है वह श्रमण है। जो काया और वचन के व्यापार से मुक्त, चतुर्विध आराधना में सदा रक्त, निर्ग्रन्थ और निर्मोह है। जो निष्परिग्रही व निराम्भ है, भिक्षाचर्या में सदा शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यान में लीन होता है और सब गुणों से परिपूर्ण होता है। अनन्त ज्ञानादि स्वरूप शुद्धात्मा की साधना करते हैं। वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिकसम्यक्त्वादि गुणों के साधक है। जो सुख दुःख में समान है, ध्यान में लीन है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के राग से मुक्त है। इस प्रकार जो निजात्मा को ही श्रद्धारूप व ज्ञानरूप बना लेता है और उपेक्षारूप ही जिसकी आत्मा की प्रवृत्ति हो जाती हैं, अर्थात् जो निश्चय व अभेद रत्नत्रय की साधना करता है वह निश्चयावलम्बी श्रेष्ठ मुनि है। रत्नत्रय की भावनारूप से वह स्वात्मा को साधता है। 1. षट्खंडागम 33.51 2. प्रवचन सार 241, मूलआराधना 521 3. नियमसार 75 4. मूल आराधना 1000 5. धवला 1.1, 1, 1.51 6. धवला 8.3, 41.87.4 7. नय चक्र वृ. 330-331 8. तत्त्वार्थसार 9.6 9. प्र. सार ता. वृ. 252-345-16 परमात्म प्रकाश 1.7.14.7, पंचाध्यायी 667