________________ (235) 22. केश लोंच 23. नग्नता 24. अस्नान 25. भूशयन 26. अदन्त धावन 27. खड़े-खड़े भोजन करना 28. एक भुक्ति-एक समय भोजन करना यहाँ दिगम्बर परंपरा के इन गुणों में बाह्याचार पर विशेष बल दिया है, किन्तु श्वेताम्बर परंपरा में बाह्य आचरण की अपेक्षा साधक ही आन्तरिक विशुद्धि का अत्यधिक महत्त्व दर्शाया है। आध्यात्मिक विकास का लक्ष्य इससे पुष्ट होता है। विध्यात्मक गुण(क) 18000 शील गुणों के धारक 18000 शील के गुणों के धारक साधु है। ये 18000 शीलगुण निम्न प्रकार से हैंतीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँ - मन, वचन व काय * कृत, कारित, अनुमोदना x पाँच इन्द्रिया x चार कषाय = 720; तीन प्रकार की चेतना स्त्रियाँ x मन, वचन, काय - कृत, कारित, अनुमोदन x पाँच इन्द्रियाँ x चार संज्ञा x सोलह कषाय = 17280 = 18000 इस प्रकार ये ब्रह्मचर्य की विराधना के 18000 अंग हैं। इनके त्याग से साधु को 18,000 शील गुण कहे जाते हैं / अथवा मन, वचन, काया-की शुभ क्रिया रूप तीन योग इन्हीं की अशभु प्रवृत्ति रूप तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, पृथ्वी आदि दस प्रकार के जीव दस धर्म 18000 शील गुण कहे गये हैं। अथवा मन, वचन, काया-की शुभ क्रिया रूप तीन योग x इन्हीं की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन करण x चार संज्ञा x पाँच इन्द्रिय x पृथ्वी आदि दस प्रकार के जीव दस धर्म 18,000 शील गुण कहे गये हैं। (ख) 84,000,00 उत्तर गुणों के धारक साधु साधु के 84,000,00 उत्तर गुण निम्न प्रकार के हैं पाँच पाप, चार कषाय, जुगुप्सा, भय, रति, अरति ये 13 दोष + मन, वचन, काय दुष्टता, 3 + मिथ्यात्व, प्रमाद पिशुनत्व, अज्ञान, पाँच इन्द्रियों का निग्रह ये