________________ (230) करता है। न भोजन खरीदता है, खरीदवाता है, न खरीदा हुआ लेता है। इसी प्रकार अचौर्य की दृष्टि से गृहस्थ के यहाँ के भोजन को बिना पूछे उठाकर न लाता है, न छीनकर, चुराकर, या लूटकर लेता है। वह निरामिषभोजी गृहस्थवर्ग के यहाँ से उनके लिए बनाए हुए आहार में भिक्षा के नियमानुसार गृहस्थ द्वारा प्रसन्नतापूर्वक दिया गया थोड़ा-सा एषणीय, कल्पनीय और उचित पदार्थ लेता है। ___ इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य विशिष्ट गुण भी दर्शाये हैं-(1) अनुन्नत (2) नावनत (3) विनीत (4) दांत। अनुन्नत आदि ये गुण इसलिए आवश्यक है कि जब कोई साधक भिक्षा को अपना अधिकार या आजीविका का साधना बना लेता है, तब उसमें अभिमान आ जाता है, वह उद्धत होकर गृहस्थों (अनुयायियों) पर धौंस जमाने लगता है, भिक्षा न देने पर श्राप या अनिष्ट कर देने का भय दिखाता है, या भिक्षा देने के लिए दवाब डालता है अथवा दीनता हीनता या करुणता दिखाकर भोजन लेताहै, अथवा भिक्षा न मिलने पर अपनी नम्रता छोड़कर गाँव, नगर या उस गृहस्थ को कोसने या अपशब्दों से धिक्कारने लगता है अथवा जिह्वा आदि पर संयम न रखकर सरस, स्वादिष्ट, पौष्टिक वस्तु की लालसावश सम्पन्नघरों में ताक-झाक करता है, अंगारादि दोषों का सेवनकर अपनी जितेन्द्रियता को खो बैठता है। अतः भिक्षु को अनुन्नत, नावनत (अदीन), नामक (विनीतया नम्र) एवं दाँत होना आवश्यक है। ___4. भिक्षु अपने सच्चारित्र पालन में उद्यत रहे, उसी का ध्यान रखे, चिन्तन करे, अपने शरीर और उन से सम्बन्धित वस्तुओं के चिन्तन में मन को प्रवृत्त न करे। ___ अंतिम दो विशेषण भिक्षु की विशेषता सूचित करते हैं-1. अध्यात्मयोगशुद्धादान और 2. नाना परीषहोपसर्ग सहिष्णु कई भिक्षु भिक्षा न मिलने या मनोऽनुकूल न मिलने पर आर्तध्यान या रौद्रध्यान करने लगते हैं, यह भिक्षु का पतन है, उसे धर्मध्यानादि रूप अध्यात्मयोग से अपने चरित्र को शुद्ध रखने, रत्नत्रयाराधनाप्रधान चिन्तन करने का प्रयत्न करना चाहिये। साथ ही भिक्षाटन के दौरान कोई परीषह या उपसर्ग आ पड़े तो उस समय मन में दैन्य या संयम से पलायन का विचार न लाकर उस परीषह या उपसर्ग को समभाव से सहन करना ही भिक्षु का गुण है। निर्ग्रन्थ - पूर्वकथित भिक्षु गुणों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ के कुछ विशिष्ट गुणों का निर्देश 1. वही 16.637