________________ (232) ये सब भिन्न-भिन्न शब्द विभिन्न प्रवृत्ति निमित्तक होते हुए भी कंथचित् एकार्थक है, परस्पर अविनाभावी है। इसके अतिरिक्त यति, मुनि आदि पर्यायें भी साधु की ही है। (2) साधु के गुण-(विधि निषेधरूप में) जैन परंपरा में साधु पद के अधिकारी में कुछ योग्यताओं को आवशयकीय माना गया है। तात्पर्य यह है कि साधु बनने से पूर्व कुछ गुणों का होना अनिवार्य है, तभी वह साधुत्व को प्राप्त कर सकता है। ये गुण 'मूल गुण' कहलाते हैं, अर्थात् अत्यन्त आवश्यक। श्वेताम्बर परंपरा में ये गुण 27 हैं, तो दिगम्बर परंपरा ये गुण 28 मान्य करती है। तत्त्वार्थ सूत्र एवं मूलाचार नामक ग्रंथ इन गुणों पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। श्वेताम्बर परंपरा मान्य 27 गुण' - 1. प्राणातिपात विरमण व्रत संयुक्त 2. मृषावाद विरमण व्रत संयुक्त 3. अदत्तादान विरमण व्रत संयुक्त 4. मैथुन विरमण व्रत संयुक्त 5. परिग्रह विरमण व्रत संयुक्त 6. रात्रिभोजन विरमण व्रत संयुक्त 7. पृथ्वीकाय रक्षक 8. अप्काय रक्षक 9. तेउकाय रक्षक 10. वायुकाय रक्षक 11. वनस्पतिकाय रक्षक 12. त्रसकाय रक्षक 13. एकेन्द्रिय जीव रक्षक 14. बेइन्द्रिय जीव रक्षक 1. नवपद आराधना विधि. पृ. 35