________________ (231) किया है-जो साधक एक (द्रव्य से सहायक रहित अकेला और भाव से रागद्वेषरहित एकाकी आत्मा) हो, जो एकवेता (यह आत्मा परलोक में एकाकी जाता है, इसे भली भाँति जानता हो या एकमात्र मोक्ष या संयम को ही जानता हो, जो बुद्ध (वस्तुतत्त्वज्ञ) हो, जो सच्छिन्न स्रोत (जिसने आस्रवों के स्रोत-द्वार बंद कर दिये) हो, जो सुसमित(पांच समितियों से युक्त) हो, जो सुसामायिक युक्त (शत्रु-मित्र आदि पर समभाव रखता) हो, जो आत्मवाद-प्राप्त (आत्मा के नित्यानित्य आदि समग्र स्वरूप का यथार्थ रूप से ज्ञाता) हो, तो जो समस्त पदार्थों के स्वभाव को जानता हो, जिसने द्रव्य और भाव दोनों तरह से संसारगमन स्रोत (मार्ग) को बंद कर दिया हो, जो पूजा, सत्कार एवं द्रव्यादिक के लाभ का अभिलाषी नहीं हो, जो एकमात्र धर्मार्थी और धर्मवेत्ता हो, जिसने नियाग (मोक्षमार्ग या सत्संयम) को सब प्रकार से स्वीकार (प्राप्त) कर लिया हो, जो समत्व में विचरण करता हो, इस प्रकार जो साधु दान्त,भव्य हो और काया से आसक्ति हटा चुका हो, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिये। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न पहलुओं से निर्ग्रन्थ का स्वरूप बताया गया है। निर्ग्रन्थ वह है जो बाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थियों से रहित हो। सहायकता या रागद्वेषयुक्तता, सांसारिक सजीव निर्जीव पर पदार्थों को अपने मानकर सुख प्राप्ति या स्वार्थपूर्ति की आशा रखना, वस्तुतत्व की अनभिज्ञता, आस्रवद्वारों को न रोकना, मन और इन्द्रियों पर असंयम-परवशता, शत्रुमित्र आदि पर रागद्वेषादि विषम-भाव, आत्मा के सच्चे स्वरूप को न जानकर शरीरादि को ही आत्मा समझना, द्रव्यभाव से संसार-स्रोत को खुला रखना, पूजा, सत्कार या द्रव्य आदि के लाभ की आकांक्षा करना आदि ये ग्रन्थियाँ है, जिनसे निर्ग्रन्थ समाप्त हो जाती है। बाह्य-आभ्यन्तर गांठे निर्ग्रन्थ जीवन को खोखला बना देती है। इसीलिए शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ के लिए एक, एकवित्, बुद्ध, सच्छिन्न स्रोत, सुसंयत, सुसमित, सुसामायति, आत्मवादप्राप्त, स्रोतपरिच्छिन्न, अपूजा-सत्कारलाभार्थी आदि विशिष्ट गुण अनिवार्य बताये हैं। क्योंकि गुणों से तत्त्वों का परिज्ञान होने पर ही संग, संयोग, सम्बन्ध, सहायक, सुख-दुःख-प्रदाता आदि की ग्रन्थि टूटती है। साथ ही विधेयात्मक गुणों के रूप में धर्मार्थी, धर्मवेत्ता, नियागप्रतिपन्न, समत्वचारी आदि विशिष्ट गुणों का भी विधान किया है जो रागद्वेष, वैर, मोह, हिंसादि पापों की ग्रन्थि से बचाएगा। वास्तव में निर्ग्रन्थत्व के इन गुणों से सुशोभित साधु ही निर्ग्रन्थ कहलाने का अधिकारी है।