________________ (216) में महावीरस्वामी की स्तुति है। इसमें आगमों का वर्गीकरण किया गया है। एवं अंगबाह्य, अंगप्रविष्ट, कालिक, उत्कालिक सूत्रों को प्रस्तुत किया है। इसके कर्ता दूष्यगणि के शिष्य देववाचक हैं। इन्हें कितनेक देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण स्वीकार करते हैं। जो कि उचित नहीं लगती। इसकी रचना की पूर्व सीमा ईस्वी. सन् की तीसरी शताब्दी और उत्तरसीमा पाँचवीं शताब्दी मानी गई है। 2. अणुओगदार (अनुयोगद्वार) लगभग 2000 श्लोक प्रमाण और प्रश्नोत्तर शैली में मुख्यतया 152 गद्यमय सूत्रों में रचित इस आगम में द्रव्यानुयोग का विवरण है। अनुयोग के चार द्वारउपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय पर प्रकाश डालता है। इसके कर्ता कितनेक के मत में आर्यरक्षित सूरी स्वीकार किये गये हैं। इस प्रकार इसकी रचना ई. स. दूसरी शताब्दी मानी जा सकती है। ___ इन चूलिका सूत्रों का प्रमाण 700 + 2000 = 2700 श्लोक का है। इन 45 आगमों का कुल प्रमाण 80122 श्लोक हैं। इन आगमों का अध्यापन/पाठन उपाध्याय प्रवर करवा कर, शिष्य परम्परा में ज्ञानार्जन कराते हैं। ज्ञानाञ्जन करके सत्य तथ्य का ज्ञान करवा कर मुक्ति पथ पर आरूढ़ करते हैं। बौद्ध परम्परा में उपाध्याय पद जैन परम्परा की भांति बौद्ध परम्परा में भी उपाध्याय पद का निरूपण किया गया है। यहाँ पर उपाध्याय पद आचार्य पद की भांति प्रथमतः नहीं था, किन्तु शिष्य समुदाय में अनुशासनहीनता तथा अव्यवस्था के फलस्वरूप बुद्ध ने उपाध्याय बनाने की अनुमति प्रदान की। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि बुद्ध ने तो मात्र अनुमति ही प्रदान की है। उपाध्याय का चयन स्वयं शिष्यों को ही करना पड़ता था। किन्तु उपाध्याय पद का अधिकारी वही हो सकता था, जो भिक्षु संघ में दस वर्ष से हो एवं शिष्यों की देखभाल का निर्वहन कर सकता हो। उपाध्याय में शिष्यों पर अनुशासन व व्यवस्था रखने की शक्ति होनी चाहिए।' उपाध्याय को शिष्य को पुत्रवत् तथा शिष्य को भी उपाध्याय को पितृतुल्य गिनना चाहिए। उपाध्याय शिष्य को पाठ देते, धार्मिक प्रश्नों के जवाब देते, 1. उवज्झायवत्तकथा, महावग्ग (विनयपिटक) पृ. 42-47, चुल्लवग्ग पृ. 328-332