________________ (222) समभाव रखता है, वही साधक चैतन्य (आत्मरूप), ज्ञान, वेद (शास्त्र) धर्म तथा ब्रह्म का ज्ञाता है। वह अपने विज्ञान बल से लोक के स्वरूप को जानता है, वही मुनि कहला सकता है। इस प्रकार धर्म को जानने वाले मुनि का संसारचक्र तथा विषयाभिलाषा (आसक्ति) रागादि से क्या संबंध है ? यह जानते हैं। रति-अरति को सहन करते हैं। संयम में कठिनाई का अनुभव नहीं करते और जागृत रहकर वैर-विरोध को दूर करते हैं।' __यहाँ प्रश्न है कि कोई परस्पर लज्जा या भय से पापकर्म नहीं करता है तो क्या वह मुनि कहा जा सकेगा? समाधान करते हुए कथन है-कदापि नहीं! समता की जहाँ उपेक्षा है, वहाँ मुनित्व नहीं। समभाव से जो पापकर्म नहीं करता वही सच्चा मुनि कहा जा सकता है। दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन सूत्र में जिसका नाम ही 'स-भिक्खु' है, इस अध्ययन में सद्भिक्षु के लक्षण इस प्रकार बताए हैं-जो तीर्थंकर के वचनों में समाहितचित्त हो, स्त्रियों में आसक्ति से तथा विषय-भोगों से विरत हो। जो षट्कायिक जीवों की किसी भी प्रकार से विराधना नहीं करता-कराता हो, जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् मानता है, जो पंच महाव्रत एवं पंच संवर का पालन करता है, जो कषायविजयी है, परिग्रहवृत्ति तथा गृहस्थ प्रपंचों से दूर है, जो खाद्य पदार्थों का संचय नहीं करता, जो लाया हुआ आहार साधर्मिकों को संविभक्त और आमंत्रित करके खाता है। जो अधन (अकिंचन) है तथा जो गृहस्थों का योग (अधिक संसर्ग या व्यापार) नहीं करता, जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जो सदा अमूढ़ है जो ज्ञान, तप और संयम में आस्थावान् है। जो तपस्या से पूर्वकत् पापकर्मों को नष्ट करता है और मन-वचन-काया से सुसंवृत्त है, वही सच्चा भिक्षु है। ___ जो एषणाविधि से प्राप्त आहार को न तो संचित करता है और न करवाता है जो कलहकथा, कोप आदि नहीं करता, जो इंद्रियविजयी, संयम में ध्रुवयोगी एवं अशांत है। जो कठोर एवं भयावह शब्दों को समतापूर्वक सहता है, जो सुख दुःख में समभावी, अभय, तपश्चरण एवं विविध गुणों में रत, शरीर निरपेक्ष, सर्वांग 1. 1. आचा. 1.3.1 2. आचा. 1.3.3. 3. 3. दशवैकालिक अध्य. 10 4. उत्तराध्ययन अध्य. 15