________________ (220) श्रमण तथा ब्राह्मण पंरपरा में साधु जीवन को सर्वोच्च माना है, फिर भी ब्राह्मण परंपरा विशेष रूप से गृहस्थ जीवन को संन्यास के समकक्ष बनाने के प्रयास में रही है। जैन धर्म में साधु- श्रमण परंपरा में साधु जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। साधना के अनुकूल वातावरण प्राप्त करने के लिए गृहस्थ जीवन के प्रपंचों का त्याग करके, गृहस्थ वेश का त्याग करना आवश्यक होता है। यद्यपि साधना गृहस्थ वेष या अन्य किसी वेष से भी हो सकती है, क्योंकि मुक्त होने के लिए वेष बाधक नहीं, बाधक है विषय-विकार। अतः आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए ब्राह्य वातावरण भी अपेक्षित है, जहाँ सहजता से अनुकूल वातावरण में साधना के माध्यम से कर्म क्षय किया जा सके। जैन परंपरा में साधु जीवन का प्रथम आचार है, साधना है- पाप विरति। जैन साधु को कुछ समय के लिए नहीं वरन् यावज्जीवन पर्यन्त सावध योगों-पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करके, आन्तरिक रूप से उसे समस्त रागद्वेषात्मक प्रवृत्तियों से परे होना पड़ता है। इस अर्थ में साधु का तात्पर्य ही है-समत्व की साधना। वास्तव में मस्तक मुंडाने मात्र से कोई साधु नहीं हो जाता, वरन् जो समत्व की साधना करता है वही साधु होता है। सूत्रकृतांग में साधु जीवन की स्पष्ट रूप से व्याख्या उपलब्ध होती है कि "जो शरीर आदि में आसक्ति नहीं रखता, सांसारिक कामना नहीं करता, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, मैथुन और परिग्रह के विकारों से रहित है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और आत्मा के पतन के हेतु हैं, उन सब से निवृत्त रहता है। इस प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, मोक्ष मार्ग का सफलयात्री है, शरीर के मोहममत्व से रहित है, वह श्रमण है।" बौद्ध परंपरा में भी जैन परंपरा की भाँति समत्व की साधना करना ही भिक्षु का परम लक्ष्य स्वीकार किया गया है। बुद्ध के अनुसार जो व्रत हीन है तथा मिथ्याभाषी है, वह मुंडित होने मात्र से श्रमण नहीं होता। इच्छा और लोभ से भरा हुआ मनुष्य भला क्या साधु बनेगा? जो छोटे-बड़े सब पापों का शमन करता है, उसे पापों का शमनकर्ता होने के कारण ही श्रमण कहा जाता है। इस प्रकार बौद्ध परंपरा में भी भिक्षु को पापकारी प्रवृत्तियों से निवृत्त होने का बुद्ध का उपदेश है। 1. उत्तराध्ययन 25.32 2. सूत्रकृतांग 1.16.2 3. धम्मपद 264-265