________________ (221) वैदिक परंपरा में संन्यासी को फलाकांक्षा से दूर रहने को कहा गया है। वहाँ भी पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा का परित्याग करके भी प्राणियों को अभय प्रदान करने वाला संन्यासी है, कहा गया है। इस प्रकार यहाँ दृष्टिगोचर होता है कि सभी परंपराएं एक मत से पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग एवं विषय-विकारों से निवृत्त होना स्वीकारती है। साधु-आगमिक व्याख्या प्रथम अंग सूत्र आचारांग में साधु की व्यवस्था करते हुए कथन है कि "जो जीवन प्रपंचों को त्याग कर गृहत्यागी हुआ है, जिसका अन्तःकरण सरल है, जिसने मोक्षमार्ग स्वीकार किया है तथा जिसके कपट का सर्वथा त्याग किया है, वही सच्चा अणगार है। पुनः उल्लेख है कि तत्त्वों को जानकर, उभयरूप संयम के स्वरूप को यथार्थरूप से समझकर जो यह संकल्प करता है कि मैं किसी भी प्राणी को पीड़ा न दूंगा और तदनुसार किसी को भी पीड़ा नहीं देता और हिंसा, विषय, कषाय और सांसारिक बंधनों से विरक्त हैं, जिनशासन में अनुरक्त है। जो लोभ की इच्छा नहीं करते। वह समय को पहचानने वाला, अपनी शक्ति को जानने वाला, मात्रा-प्रमाण, क्षेत्र, अवसर, ज्ञानादि विनय, अपने एवं दूसरे के शास्त्रों को, दूसरों के अभिप्राय को, जानने वाला, परिग्रह की ममता को दूर करने वाला, यथाकाल अनुष्ठान करने वाला, निरासक्त होकर राग-द्वेष को छेदकर मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता है। उनको हिंसक उपदेश और चिकित्सा नहीं कल्पती। लोक के स्वरूप को जानकर, विवेकपूर्ण लोकसंज्ञा का त्याग करें। जो कर्म-शरीर को आत्मा से अलग करते हैं। सत्पुरुषार्थी, सम्यक्त्वदर्शी नीरस, हल्का, सूखा भोजन करते हैं। जो शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के सुंदर या खराब, अनुकूल या प्रतिकूल मनोज्ञ या अमनोज्ञ अवस्था प्राप्त होने पर भी दोनों में 1. नीतिशास्त्र की रूपरेखा पृ. 101 2. आचा. 1.1.3.19 3. वही. 1.1.5.39 4. वही 1.2.2 5. वही 1.2.5 6. वही. 1.2.5 7. वही. 1.2.6 8. वही 1.2.6