________________ (219) पंच परमेष्ठी का पंचम पदसाधु : श्रमण व ब्राह्मण परंपरा के तुलनात्मक दृष्टिकोण में भारतीय संस्कृति की मुख्य दो धाराओं में से जैन परंपरा श्रमण परंपरा पर आधारित है। श्रमण अर्थात् साधु, यति, मुनि, भिक्षु, अणगार आदि। ये सब श्रमण की ही पर्यायें है। जैन प्रवचन शब्द-प्रधान न होकर अर्थ-प्रधान है। अतः इसमें अनेक शब्द-संकलना की गई है। प्रस्तुत प्रकरण में पंचम पद में साधु की विचारणा होने से इसमें साधु के स्थानपर अनेक स्थल पर 'श्रमण' शब्द का भी व्यवहार हो सकता है। इसका कारण यह परंपरा 'श्रमण परंपरा' है। जैन परंपरा में साधु जीवन को प्रधान माना गया है। जिन-प्रवचन अर्थात् आगम साहित्य अधिकांशतः मुनि जीवन को अनुलक्ष करके ही गुम्फित किया है। बृहद्कल्प सूत्र में इसकी प्रधानता का उल्लेख यहाँ तक किया है कि "प्रथमः प्रत्येक आगन्तुक को यतिधर्म का ज्ञान कराना चाहिये और यदि वह उसके पालन में असमर्थता प्रकट करे तो उसे गृहस्थ धर्म का उपदेश देना चाहिये। इस संदर्भ में साधु जीवन की उत्कृष्टता को दर्शाया गया है। श्रमण परंपरा की इतर धारा बौद्ध परंपरा में भी भिक्षु के जीवन को उत्कृष्ट माना गया है। गौतम बुद्ध ने त्रिपिटकों में सदैव ही भिक्षु जीवन को प्राथमिकता दी है। जैन मत के सदृश बुद्ध का भी यही उपदेश रहा जो भिक्षु बनने में असमर्थ हो उसे गृहस्थ जीवन अंगीकार करना चाहिये। इस श्रमण परंपरा के दोनों पक्षों ने मुनिजीवन को प्रथम स्थान दिया है। वैदिक पंरपरा में ठीक इसके विपरीत गृहस्थ जीवन को विशेष महत्त्व दिया गया है, किन्तु पश्चात्वर्ती वैदिक साहित्य में आश्रम व्यवस्था में संयस्त जीवन को महत्त्व ही नहीं दिया गया वरन् जीवन के अंतिम साध्य के रूप भी स्वीकार किया गया है। गीता के समय तक गृहस्थ जीवन और संन्यास मार्ग दोनों ही परम्पराएँ प्रतिष्ठित हो चुकी थी। गीता में दोनों के बीच समन्वय स्थापित किया गया है। तथा वैदिक परम्परा में गृहस्थाश्रम को विशेष महत्त्व दिया गया है। 1. बृहत्कल्प सूत्र 1139 2. सुत्तनिपात 12.14-14 3. 3. गीता 5.2