________________ (185) आचार्य रूप से वरूण ने जिस जल को अपने पास रखा, वही वरूण प्रजापति से फल चाहते थे, वही मित्र ने ब्रह्मचारी होकर आचार्य को दक्षिणा रूप से दिया। विद्या का उपदेश देकर आचार्य ब्रह्मचारी रूप से प्रकट हुए हैं। वही तप से महिमावान हुए प्रजापति बने। प्रजापति से विराट होते हुए, वही विश्व के स्रष्टा परमात्मा हो गए। आचार्य ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मचारी को अपना शिष्य बनाने की इच्छा करता है। उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि यहाँ आचार्य को कितना गौरव प्राप्त है। जीवन-मृत्यु सब कुछ आचार्य के ही आधीन है। यद्यपि उनका कार्य विद्याध्ययन ही है। तथापि उनकी कृपा अति महत्त्वपूर्ण है, जीवन विकास के लिए। उनकी महती कृपा का ही सुफल है कि सर्व वांछित पूर्ण होते हैं / आचार्य ही प्रजापति बनते है तथा क्रमशः विराट एवं विश्व के स्रष्टा परमात्मा होजाते हैं / इस प्रकार आचार्य परमात्मपद का वरण करते हैं / ___ यद्यपि जैन परम्परा संघ के नायक एवं उपदेशक रूप से अंगीकार करती है। अर्हत् का अभाव में उनका स्थान सर्वोपरि होता है, संघ संचालन में। तथापि वे परमात्म पद का वरण करें ही, यह निश्चित नहीं। क्योंकि जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया, वे ही परमात्म पद पर अधिष्ठित हो सकते हैं, अन्य नहीं। आचार्य पद मात्र संघ के नायक, संचालक के लिए ही यहाँ प्रयुक्त हुआ है। जबकि वेद में उनकी समानता परमात्मा के समकक्ष दर्शायी है। बौद्ध परम्परा में आचार्य विनयपिटक के अन्तर्गत 'महावग्ग' एवं 'चुल्लवग' में आचार्य विषयक वर्णन उपलब्ध होता है। यहाँ उल्लेख है कि जब संघ में खासतौर से शिष्यों में अव्यवस्था हो जाती है, भिक्षु आचार-धर्म का यथोचित पालन नहीं करते, तब बुद्ध के समक्ष उनकी फरियाद की जाती है। तब बुद्ध स्वयं शिष्यों को उद्बोधन करते हैं कि आचार्य बनावें। उससे पूर्व भिक्षु आचार्य के बिना ही रहते थे। अनुशासनहीनता होने पर बुद्ध आचार्य बनाने की अनुमति देते हैं। साथ ही उपदेश 1. (अथव. 11.3.5.14-16) 2. (वही 11.3.5.17) 3. (तैत्तिरीय उप. 1.3.2, 11.1, छांदोग्य 4.9.1, 1.4.1, 7..15.1, जैमि. 3.2.3.4,) 4. (आचारिवत्तकथा-विनयपिटक-महावग्ग 1.2.1., चुल्लवग्ग-८.५.४)